बेणेश्वर मेला

बेणेश्वर मेला हिंदू कैलेंडर के अनुसार माघ महीने के शुक्ल एकादशी से शुरू होता है। यह देश का अनूठा और सबसे बड़ा आदिवासी मेला है जो लाखों भक्तों को आकर्षित करता है। यह मेला प्रतिवर्ष राजस्थान के डूंगरपुर में आयोजित किया जाता है। बेणेश्वर मेला नाम डूंगरपुर में शिव मंदिर में स्थित पवित्र शिव लिंग से लिया गया है। बेणेश्वर 'स्थानीय भाषा में वाग्दी का अर्थ है' डेल्टा का मास्टर '।
मेले का आयोजन नदियों - माही और सोम द्वारा निर्मित डेल्टा में किया जाता है। माघ के शुक्ल पूर्णिमा तक मेला चलता रहता है। बानेश्वर आसपुर से 24 किलोमीटर दूर स्थित है, जो डूंगरपुर जिले में है।
राजस्थान के शहर डूंगरपुर से 60 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है बेणेश्वर. यहां के सोम व माही नदियों के संगम पर बने स्थित शिव मंदिर के परिसर में हर साल माघ शुक्ल पूर्णिमा के अवसर पर लगने वाला मेला आदिवासियों का महाकुंभ कहा जाता है. यहां स्थित भगवान शिव मंदिर के निकट भगवान विष्णु का भी मंदिर है, जिसके बारे में मान्यता है कि जब भगवान विष्णु के अवतार माव जी ने यहां तपस्या की थी, यह मंदिर उसी समय बना थ।

इस मेले में इस क्षेत्र के सभी आदिवासी समुदाय के साथ-साथ मध्य प्रदेश और गुजरात से हजारों आदिवासी सोम और माही नदियों के पवित्र संगम पर डुबकी लगाने के पश्चात भगवान शिव के बेणेश्वर मंदिर तथा आसपास के मंदिरों में पूजा-अर्चना करते हैं। इस मेले जादुई तमाशे और करतबों का प्रदर्शन और शाम में लोक कलाकारों द्वारा प्रस्तुत संगीत-नृत्य के कार्यक्रम पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। आदिवासी समूहों में अपनी पारंपरिक पोशाकों को पहने नाचते-गाते इस पर्व पर स्नान करने आते हैं।

बेणेश्वर मेलें की पंरपराएं

लोगों का मानना है कि बेणेश्वर त्रिवेणी संगम से जुड़ी नदी सोम यदि पहले पूर्ण प्रवाह के साथ बहे तो उस वर्ष चावल की फसल अच्छी होती है. वहीं माही में जल प्रवाह पहले होने पर समय ठीक नहीं माना जाता है. बेणेश्वर महामेले के सभी दिनों में भगवान को अलग-अलग भोग लगता है. माघ शुक्ल पूर्णिमा को शीरा, माघ कृष्ण प्रतिपदा को दाल-बाटी, द्वितीया को दाल-बाटी, तृतीया को पूड़ी-शीरा, चतुर्थी को दाल-रोटी, पंचमी को मोदक, दाल-बाटी आदि। हजारों आदिवासी मेले में जुटे और अगले वर्ष के लिए खुशहाली की कामना करते हैं। इस अवसर पर उन्होंने पारंपरिक अनुष्ठान भी पूरे करते हैं। सदानीरा माही तथा सोम-जाखम के संगम स्थल पर आयोजित यह मेला आदिवासियों का सबसे बड़ा मेला है और यही कारण है कि इसे 'वनवासियों का महाकुंभ' भी कहा जाता है।

बेणेश्वर मेले की खासियत

बाणेश्वर मेला माघ शुक्ल एकादशी पर ध्वजारोहण की रस्म के साथ प्रारंभ होता है। इस मेले में हजारों की तादाद में मेलार्थियों ने मेले की विभिन्न लोक रस्मों और पूजा-पाठ में हिस्सा लेते हैं। माघ पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर मेलार्थियों ने मृत परिजनों की मुक्ति की कामना करते हैं और संगम तीर्थ में अस्थियाँ विसर्जित करते हैं।

इस मेले में आदिवासी पूजा करवाते हैं, कतारबद्ध होकर परिजनों सहित कमर तक पानी में उतर कर दक्षिण दिशा की ओर मुख कर अस्थियों का विधिवत विसर्जन करते हैं। आदिवासियों ने संगम तटों एवं मध्यवर्ती छोटे टापुओं पर आटा गूँधने तथा सरकंडे जलाकर बाटियाँ सेंकी, गुड़, शक्कर, घी मिलाकर चूरमा बनाते हैं और भगवान को भोग लगाकर परिजनों के साथ सामूहिक भोजन करते हैं। इस मेले में कई प्रदर्शनियां, सांस्कृतिक कार्यक्रम और करतब भी दिखाए जाते हैं। मेला बाजारों में जनजाति बहुल वागड़ अंचल के सभी प्रकार के लघु उद्योगों एवं कुटीर उद्योगों की जीवंत झांकी दिखाई जातीहै। इन मेलाबाजारों में छोटे-बड़े भोजनालय, जलपान गृह, मनिहारी, बर्तन, गन्ने के रस, लोहा, काष्ठ, दूध, खिलौनों, प्लास्टिक सामग्री, चाय, पाषाण सामग्री, खादी वस्त्र, साज-सज्जा, श्रृंगार, जूते-चप्पल, सिले-सिलाए वस्त्र आदि की दुकानें खरीदारी के लिए लगाई जाती है।

बेणेश्वर मेला वास्तव में दो मेलों का मेल है। एक मेले का आयोजन भगवान शिव को श्रद्धांजलि देने के लिए किया जाता है, जिसे बाणेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। और दूसरा मेला संत मावजी की पुत्रवधू जानकुंवर द्वारा विष्णु मंदिर के लिए निर्माण कार्य पूरा करने के लिए आयोजित किया जाता है। पुजारी या मठाधीश एक विशाल जुलूस में सभा स्थल से मेला स्थल तक पहुंचते हैं और नदी में डुबकी लगाते हैं। फिर लक्ष्मी नारायण मंदिर में रात्रि के समय मठाधीष की आरती की जाती है और रासलीला का आयोजन किया जाता है।

भील या डुंगरपुर, उदयपुर और बांसवाड़ा के आदिवासी लोग सभा का प्रमुख हिस्सा हैं। मेला बहुत प्रसिद्ध है और बहुत बड़े स्तर पर आयोजित किया जाता है। माघ शुक्ल एकादशी पर मंदिर में मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह किया गया। तब से हर साल इस शुभ कार्यक्रम को मनाने के लिए एक मेले का आयोजन किया जाता है।

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