उत्तरी भारत में आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को भड़ली या भडल्या नवमी कहते हैं। इस दिन गुप्त नवरात्रि का समापन भी होता है। भड़ली नवमी को भड़ाली नवमी, अषाढ़ शुक्ला पक्ष नवमी, कंदारप नवमी के नाम से भी जाना जाता है और आम तौर पर यह अषाढ़ महीने में मनाया जाता है। उत्तर भारत में इस तिथि को विवाह के लिए अबूझ मुहूर्त माना जाता है। हिंदू समुदाय में विवाह को हमेशा शुभ मुहर्तों में ही किया जाता है ताकि वह जन्म-जन्मांतर तक सफल रहे। भड़ली नवमी को आमतौर पर विवाह के शुभ मुहूर्तों के दिनों का अंतिम दिन माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि भड़ली नवमी के बाद भगवान आमतौर पर सो जाते हैं, इसलिए केवल इस अवधि के दौरान सभी शुभ गतिविधियां आयोजित की जा सकती हैं। शास्त्रों के अनुसार भड़ल्या नवमी विवाह को लिए अक्षय तृतीया के समान ही अबूझ मुहूर्त हैं। इस दिन शादी की जा सकती है। जिन लोगों के विवाह के लिए कोई मुहूर्त नहीं निकलता उनका विवाह इस दिन किया जाए तो उनके वैवाहिक जीवन में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं होता। भारत के अन्य हिस्सों में इसे दूसरों रूपों में मनाया जाता है। भारत में चातुर्मास माना जाता है जिसका अर्थ होता है कि भड़ल्या नवमी के बाद 4 महीनों तक विवाह या अन्य शुभ कार्य नहीं किए जा सकते, क्योंकि इस दौरान सभी देवी-देवता सो जाते हैं। इसके बाद सीधा देव उठनी एकादशी पर देवताओं के जागने पर चातुर्मास समाप्त होता है। देवों के जागने पर अबूझ मुहूर्त में लग्न कार्य, खरीदारी और अन्य शुभ काम शुरु होंते हैं। चतुर्मास में कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता। इसलिए इस दिन का महत्व और बढ़ जाता है। शादी-विवाह-खरीदारी,लेन-देन कते लिहाज़ से यह दिन बहुत शुभ माना जाता है।

भड़ली नवमी

विष्णु को समर्पित है उत्सव

भड़ली नवमी का त्यौहार भगवान विष्णु के सम्मान में मनाया जाता है। आमतौर पर हिंदू पौराणिक कथाओं में यह माना जाता है कि भगवान विष्णु बहुत शक्तिशाली हैं। हिंदुओं में जब भगवान सो रहे हों तो विवाह नहीं किया जा सकता है और भड़ली नवमी के बाद भगवान विष्णु सो जाते हैं। विवाहित जीवन को खुश करने के लिए भगवान विष्णु का आशीर्वाद होना अत्यंत आवश्यक होता है। भगवान विष्णु सोने जाने से पहले भड़ली नवमी का दिन भक्तों को देते हैं ताकि वह अपने बचे हुए शुभ कार्य इस दिन कर लें। इस दिन पूजा पाठ करने से भगवान सब मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं। इसलिए भक्त इस दिन को अनोखे तरीके से बिताने और प्रभु का आशीर्वाद पाने की इच्छा रखते हैं। भड़ली नवमी किसी भी धार्मिक गतिविधि के लिए आखिरी दिन होता है इसके बाद कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता है।

भड़ली नवमी समारोह

हिंदुओं में भड़ली नवमी का उत्सव बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस अवसर को अद्वितीय बनाने के लिए कई धार्मिक कार्यक्रमों की योजना बनाई जाती है। पवित्र शास्त्रों को पढ़ने के लिए विशेष पाठ सत्र का आयोजन किया जाता है। भजन संध्या आयोजित की जाती है। भगवान के गुणों का बखान किया जाता है। पुजारी भगवान विष्णु को प्रसाद चढ़ाने के साथ उनकी देखभाल करते हैं। भक्तों में प्रसाद वितरित किया जाता है। भक्तों को भगवान विष्णु के सम्मान में लिखे गए गीत व कथाएं सुनाई जाती हैं ताकि, लोग भगवान का आशीर्वाद ग्रहण कर सकें।

झारखंड का भड़ली मेला

भडली नवमी को बेशक शादी से जोड़कर देखा जाता है किन्तु पूर्व में झारखंड राज्य में भड़ली नवमी के उत्सव का अलग ही रंग होता है। इसे यहां भड़ली मेला भी कहा जाता है। झारखंड में, भक्त न केवल राज्य के भीतर से बल्कि पड़ोसी क्षेत्रों से भी इस अवसर का जश्न मनाने के लिए इकट्ठे होते हैं। झारखंड प्राचीन काल से भड़ली मेला रखता आया है और आज भी इस मेले में वहीं रग विद्यमान है। इसे बहुत ही उत्साह, उमंग और हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। झारखंड में भड़ली मेले में इतखोरी उत्सव प्रसिद्ध है जिसमें पूरे क्षेत्रों से लोग इसमें शामिल होने आते हैं। इतखोरी में भगवान शिव और देवी काली से संबधित एक प्राचिन मंदिर है जिसमें आशीर्वाद लेने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है इसलिए भक्त यहां दूर-दूर से आते हैं। इतखोरी के भड़ली मेले के दौरान देवी काली की जगदम्बा के रूप में पूजा की जाती है। भक्त न केवल यहां बलि चढ़ाते हैं बल्कि मेले में मां काली का दिव्य दर्शन और आशीर्वाद लेने के लिए आकर्षित होते हैं। यहां बच्चों का मुंडन कराने के लिए भी लोग बड़ी दूर-दूर से आते हैं। इतखोरी का भद्रकाली मंदिर हिंदू, जैन और बौद्ध देवताओं के अपने अद्वितीय संग्रह के लिए भी जाना जाता है। जिसके कारण भक्त अपने जीवन को खुशियों से ओत-प्रोत करने लिए इन देवी-देवताओं का दर्शन प्राप्त करने इस मेले में आते हैं।

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