दादू दयाल जयंती भक्ति आंदोलन के महान कवी और राजस्थान के धार्म सुधारक संत दादू दयाल के सम्मान में मनाई जाती है। संत दादू दयाल का जन्म 1544 में गुजरात के अहमदाबाद में हुआ था कबीर के समान ही निम्न जाति में पैदा होने के बाद भी उन्होंने धर्म को बेहतर ढंग से समझा और उसे समाज के सामने प्रस्तुत किया। उनकी इस शिक्षा ने समाज पर गहरा प्रभाव डाला। संत दादू दयाल के 52 शिष्य थे, जिनमें गरीबदास, सुंदरदास, रज्जब और बखना मुख्य हैं। दादू के नाम से 'दादू पंथ' काफी प्रसिद्ध हुआ था। वे अत्यधिक दयालु थे। इस कारण इनका नाम 'दादू दयाल' पड़ गया। दादू दयाल को महान दानी के रुप में जाना जाता है जो अपनी प्रिय से प्रिय वस्तुओं को भी दान में दे देते थे। दादू हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी आदि कई भाषाओं के ज्ञाता थे। इन्होंने प्रमुख ग्रंथ ‘शब्द और साखी’ लिखीं हैं। इनकी रचना प्रेमभावपूर्ण है। जात-पाँत के निराकरण, हिन्दू-मुसलमानों की एकता आदि विषयों पर इनके पद तर्क-प्रेरित न होकर हृदय-प्रेरित हैं। उन्होंने कभी भी जात-पात का अनुसरण नहीं किया बल्कि सभी धर्मों को एक समान समझा। दादू दयाल का जन्म जरुर गुजरात में हुआ था किन्तु वह राजस्थान का प्रतिनिधित्व करने वाले प्रतिष्ठित धार्मिक गुरुों में से एक बनकर उभरे थे। दादू दयाल ने 1603 में जयपुर शहर के नारायण में समाधि लेने का फैसला किया था। दादू दयाल जी की पहचान उनके धार्मिक प्रचार, सामानता, एकता और लोगों को जागरुक करने वाले संत के रुप में की जाती है।

,संत दादू दयाल

दादू दयाल एक पवित्र संत

महान धर्म प्रचारक सन्त दादू दयाल जी महाराज का अवतार संवत् 1601 विक्रंम संवत में भारतवर्ष के गुजरात राज्य के अहमदाबाद नगर में माना जाता है। कहा जाता है कि लोदी राम नामक ब्राह्मण को साबरमती में बहता हुआ एक बालक मिला। अधेड़ होने के बाद भी उनकी कोई संतान नहीं थी। एक दिन उन्हें एक सिद्ध संत के दर्शन हुए और उन्होंने अपनी हार्दिक व्यथा उन संत को कह सुनाई। संत लोधी राम को पुत्र रत्न की प्राप्ति का वरदान दिया और कहा "साबरमती नदी में तैरते कमल पत्र पर सोते हुए बालक को अपने घर ले आना वही तुम्हारा पुत्र होगा"। पुत्र प्राप्ति की कामना लेकर लोधीराम साबरमती नदी के तट पर गए जहाँ उन्हें पानी पर तैरते कमल पर लेटा हुआ बालक प्राप्त हुआ। इसी बालक को संत दादू दयाल को रुप में जाना जाने लगा। अपने जीवन की शुरुआती अवधि के दौरान सामान्य जीवन जीने के बाद, दादू दयाल जीवन की बेहतर खोज में राजस्थान चले गए। उन्होंने एक कपास कताई करने वाले के रुप में कार्य किया। यहां उन्हें अपने जीवन का उद्देश्य पता चला। उन्होंने तपस्या की हालांकि, बदलाव उनके जीवन में कुछ संतों से मिलने के बाद आया। अपने जीवन में उन्होंने धार्मिक मार्ग पर विचार किया। आखिरकार, वह संत कबीर के सामान अपने व्यक्तिगत जीवन के अनुभवों पर विचार करने के बाद एक संत बन गए।जयपुर में शादी के बाद दादू दयाल को दो बेटे और बेटी हुई थी। लेकिन जिन संतों से उन्होंने मुलाकात की, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि वह पूर्ण रुप से पवित्र संत बन गए हैं। दादू दयाल बहुत ही बेहतर रुप से समाज में निर्गुण धर्म का प्रचार करने लगे। उन्होंने कबीर की तरह ही मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखा। हालांकि, वह राम का जाप करते रहते थे। उनके निस्वार्थ भाव के कारण बहुत लोग उनके अनुयायी बन गए। संत दादू दयाल ने अपने जीवन में कई यात्राएं की। ऐसे ही धर्म का प्रचार करते हुए वो एक बार फतेहपुर सीकरी भी गए। जहाँ पर बादशाह अकबर ने पूर्ण भक्ति व भावना से दादू जी के दर्शन कर उनके सत्संग व उपदेश ग्रहण करने के इच्छा प्रकट की। दादूजी ने 40 दिनों तक सत्संग किया। दादूजी के सत्संग से प्रभावित होकर अकबर ने अपने समस्त साम्राज्य में गौ हत्या बंदी का फरमान लागू कर दिया और उनका अनुयायी बन गया।

दादू पंथ और दादू दयाल जयंती का उत्सव

अपने प्रवचनों से लोगों के दिलों में जगह बनाने वाले दादू दयाल ने निर्गुण भक्ति पर जोर दिया। दादू दयाल की मूल्यवान शिक्षाओं के कारण, भारत भर के लोगों ने उन्हें पहचानना शुरु कर दिया था। उनका अनुसरण करने वालो लोगों की संख्या एक जबरदस्त तरीके से बढ़ी। दादू पंथ का गठन, एक आंदोलन जो दादू दयाल द्वारा बनाए गए प्रभाव और जागरूकता पर आधारित है, चलाया गया। । उनकी शिक्षाओं ने दादू दयाल की विशाल लोकप्रियता में योगदान दिया है। राजस्थान और गुजरात के लोग उन्हें उच्च सम्मान देते हैं साथ ही हरियाणा और पंजाब जैसे अन्य राज्यों के सैकड़ों अनुयायी भी उनका अनुसरण करते हैं। दादू दयाल ने थॉंबस नामक आश्रम स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । कबीर के बोध को जन-जन तक पहुँचाने में दादूपंथी संतों की बड़ी भूमिका रही है। दादू के जीवन में ही जितनी बड़ी संख्या में शिष्य-प्रशिष्य दादू के बने, सम्भवतः उतने शिष्य किसी अन्य संत के नहीं बने। दादूजी महाराज नरेना (जिला जयपुर) गए और उन्होंने इस नगर को साधना, विश्राम तथा धाम के लिए चुना और यहाँ एक खेजडे के वृक्ष के नीचे विराजमान होकर लम्बे समय तक तपस्या की। उन्होंने कई आश्रम स्थापित किए। नारायण, संभार, कराडाला, आमेर और भैरानाजी के रूप में कई आश्रम दादू दयाल की शिक्षाओं की पहचान है। "दादू" शब्द भाई को संदर्भित करता है और "दयाल" का मतलब प्रकृति से सहानुभूतिपूर्ण है। लोग हर साल अपने आश्रमों में बड़ी संख्या में इकट्ठा करके दादू दयाल जयंती को मनाते हैं। दादू दयाल अपने दान-पुण्य के लिए जाने जाते हैं। उन्हीं को आधार मानकर इस दिन उनके भक्त भी जरुरतममंदो को भोजन, वस्त्र, पैसे इत्यादि दान करते हैं। दादू दयाल की जयंती पर सत्संग के माध्यम से उनकी शिक्षाओं का अनुसरण किया जाता है।

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