हिन्दू मान्यता में गंगा सिर्फ एक नदी नहीं है बल्कि वो मां का स्वरुप हैं। जिस तरह मां अपने बच्चों की हर गलती-कसूर माफ कर उसे गले लगा लेती है वैसे ही मां गंगा अपने जल में स्नान करने वाले मनुष्यों के पापों को हर कर उन्हें पवित्र बना देती है। गंगा नदीं को मां की संज्ञा दी जाती है। भारतीय लोगों के लिए गंगा नदी की बहुत महत्वता है। गंगा भारत की सबसे प्राचीन और विस्तृत नदी तो है ही साथ ही भारतीय लोगों की विश्वास की नींव भी है। ऐसी मान्यता है कि गंगा नदी में स्नान करने से सभी दुख-दर्दों का नाश होता है। पाप का क्षय होता है। गंगा में स्नान करने से तन-मन, आत्मा पवित्र हो जाती है। कहते हैं कि गंगा नदी में मृतको का तर्पण करने से उनकी अस्थियां प्रवाहित करन से मोक्ष की प्राप्ति होती है। गंगा हिन्दू मान्यता में कई रुपों में पूज्यनीय है। गंगा नदी का जल लोग अपने घरों में ले जाते हैं और पूजा-पाठ में प्रयोग करते हैं। कहा जाता है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक की पवित्रता बिना गंगा जल के संभव नहीं हैं। शादी, ब्याह, जन्म-मरण, पूजा-पाठ, दान-व्रत इत्यादि सभी कामों में गंगा जल आवश्यक होता है। गंगा हिन्दू जनों के लिए उनका मां के समान है। इसी लिए गंगा को केवल एक नदी ना समझ उसे मां गंगा कहके सम्मान दिया जाता है। मां गंगा के सभी घांटों पर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। बनारस से लेकर हरिद्वार तक गंगा के घाटों की विशेष महिमा है। लोग दूर-दूर से गंगा में स्नान करने के लिए आते हैं और गंगा में डूबकी लगाकर अपने पापों को धोते हैं। मां गंगा को पार्वती की बहन एवं शिव की दूसरी पत्नी के रुप में भी जाना जाता है। धरती पर भागीरथ द्वारा अवतरण लेने पर इन्हें भागीरथी, और जान्ह्वी भी कहा जाता है। माता गंगा को समर्पित कई त्योहार हिन्दू धर्म में मनाए जाते हैं इनमें मकर संक्रांति, गंगा सप्तमी, गंगा दशहरा इत्यादि प्रमुख रुप से प्रसिद्ध है। गंगा भारत में कई नामों और रुपों में प्रचलित है। गंगा किसी धर्म, जाति या वर्ग विशेष की न होकर, पूरे भारत की अस्मिता और गौरव की पहचान है। इस अद्वितीय महत्ता के कारण ही भारत का समाज युगों-युगों से एक अद्वितीय तीर्थ के रूप में गंगा का गुणगान करता आया है।
देवी गंगा 

मां गंगा का स्वरुप

गंगा एक हिंदू देवी है जो मनुष्यों के पापों को क्षमा कर उन्हें पवित्र करती हैं। भारतीय ग्रंथों और पुराणों में भी गंगा की महत्वता एवं उनके स्वरुप के बारे में कई बातें प्रचलित है। देवी गंगा को सफेद साड़ी में, शांत, चंचल रुप की स्त्री के रुप में चित्रित किया जाता है। जिसके सिर पर एक सफेद मुकुट होता है और वो मगरमच्छ की सवारी करती है। उनके दाहिने हाथ में एक कमल का फूल होता है। और बाएं हाथ में एक कमंडल होता है। देवी गंगा को सदैव पानी के उपर विराजित दिखाया जाता है।

गंगा की उत्पति

गंगा के जन्म को लेकर कई कथाएं पुराणों में प्रचलित है। कहा जाता है कि ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को हस्त नक्षत्र में गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं। अत: इस दिन को उनके नाम से गंगा दशहरा के रूप में जाना जाता है।एक मान्यता के अनुसार ब्रह्मा जी के कमंडल का जल गंगा नामक युवती के रूप में प्रकट हुआ था। वैष्णव कथा के अनुसार ब्रह्माजी ने विष्णुजी के चरणों को आदर सहित धोया और उस जल को अपने कमंडल में एकत्र कर लिया था जिससे गंगा का जन्म हुआ था। यह भी कहा जाता है कि भगवान विष्णु के अंगूठे से गंगा का जन्म हुआ था। कई मान्यताओं मे यह कहा जाता है कि एक बार शिव ने ब्रह्मा, विष्णु और नारद के समक्ष गीत गाया था उस गीत के प्रभाव से विष्णु जी को पसीना आया वो पसीना ही गंगा के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गंगा धरतकी से लकर आकाश तक में व्यापत है। आकाश में रहने वाली गंगा को आकाश गंगा कहते हैं जो देवताओं को पवित्र करती है। एक अन्य मान्यता अनुसार गंगा पर्वतों के राजा हिमवान और उनकी पत्नी मीना की पुत्री हैं, इस प्रकार वे देवी पार्वती की बहन भी हैं। गंगा शुरु से ही चंचल और मनमानी थी इसलिए उनके प्रभाव को देखते हुए देवतागण उन्हें स्वर्ग ले गए थे। प्रत्येक मान्यता में यह अवश्य आता है कि उनका पालन-पोषण स्वर्ग में ब्रह्मा जी के संरक्षण में हुआ। हिन्दुओं के महाकाव्य महाभारत में कहा गया है कि वशिष्ठ द्वारा श्रापित वसुओं ने गंगा से प्रार्थना की थी कि वे उनकी माता बन जाएँ। गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुईं और इस शर्त पर राजा शांतनु की पत्नी बनीं कि वे कभी भी उनसे कोई प्रश्न नहीं करेंगे, अन्यथा वह उन्हें छोड़ कर चली जाएगी. सात वसुओं ने उनके पुत्रों के रूप में जन्म लिया और गंगा ने एक-एक करके उन सबको अपने पानी में बहा दिया, इस प्रकार उनके श्राप से उनको मुक्ति दिलाई। इस समय तक राजा शांतनु ने कोई आपत्ति नहीं की। अंततः आठवें पुत्र के जन्म पर राजा से नहीं रहा गया और उन्होंने अपनी पत्नी का विरोध किया, इसलिए गंगा उन्हें छोड़कर चली गयीं। इस प्रकार आठवें पुत्र के रूप में जन्मा द्यौस मानव रूपी नश्वर शरीर में ही फंसकर जीवित रह गया और बाद में महाभारत के सर्वाधिक सम्मानित पात्रों में से एक भीष्म के नाम से जाना गया।

गंगा का धरती पर अवतरण

पौराणिक मान्यता है कि भगवान राम के रघुवंश में उनके एक पूर्वज हुए हैं महाराज सगर, जोकि चक्रवर्ती सम्राट थे। एक बार महाराज सगर ने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया तथा उसके लिए अश्व को छोड़ा गया। इंद्र को लगा कि अश्वमेघ यज्ञ यदि पूरा हो जाएगा तो राजा सगर स्वर्ग के राजा बन जाएगें। इसलिए उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ के उस घोड़े को ले जाकर कपिल मुनि के आश्रम में पाताल में बांध दिया। तपस्या में लीन होने के कारण कपिल मुनि को इस बात का पता नहीं चला। महाराज सगर के साठ हजार पुत्र थे, जोकि स्वभाव से उद्दंड एवं अहंकारी थे। मगर उनका पौत्र अंशुमान धार्मिक एवं देव-गुरु पूजक था। सगर के साठ हजार पुत्रों ने पूरी पृथ्वी पर अश्व को ढूंढा परंतु वह उन्हें नहीं मिला। उसे खोजते हुए वे पाताल में कपिल मुनि के आश्रम में पहुंचे, जहां उन्हें अश्व बंधा हुआ दिखाई दिया। यह देख सगर के पुत्र क्रोधित हो गए तथा शस्त्र उठाकर कपिल मुनि को मारने के लिए दौड़े। तपस्या में विघ्न उत्पन्न होने से जैसे ही कपिल मुनि ने अपनी आंखें खोलीं, उनके तेज से सगर के सभी साठ हजार पुत्र वहीं जलकर भस्म हो गए! इस बात का पता जब सगर के पौत्र अंशुमान को चला, तो उसने कपिल मुनि से प्रार्थना की, जिससे प्रसन्ना होकर कपिल मुनि ने अंशुमान से कहा, 'जाओ, यह घोड़ा ले जाओ और अपने पितामह का यज्ञ संपन्न कराओ। महाराज सगर के ये साठ हजार पुत्र उद्दंड एवं अधार्मिक थे, अत: इनकी मुक्ति तभी हो सकती है, जब गंगाजल से इनकी राख का स्पर्श होगा।' महाराज सगर के बाद अंशुमान ही राज्य के उत्तारधिकारी बने किंतु उन्हें अपने पूर्वजों की मुक्ति की चिंता सतत बनी रही। कुछ समय बाद गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए अंशुमान राज्य का कार्यभार अपने पुत्र दिलीप को सौंपकर वन में तपस्या करने चले गए तथा तप करते हुए ही उन्होंने शरीर त्याग दिया। महाराज दिलीप ने भी पिता का अनुसरण करते हुए राज्यभार अपने पुत्र भगीरथ को सौंपकर तपस्या की, किंतु वे भी गंगा को पृथ्वी पर नहीं ला सके। तप करते हुए ही उनका भी शरीरांत हुआ। इसके बाद भगीरथ ने भी अपने पूर्वजों की मुक्ति के लिए गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के लिए घोर तप किया। इस प्रकार तीन पीढ़ियों की तपस्या से प्रसन्ना होकर ब्रह्माजी ने भगीरथ को दर्शन देकर वर मांगने को कहा। भगीरथ ने कहा, 'हे पितामह! मेरे साठ हजार पूर्वज कपिल मुनि के श्राप से भस्म हो गए हैं। उनकी मुक्ति के लिए आप गंगा को पृथ्वी पर भेजने की कृपा करें।ब्रह्माजी ने भगीरथ से कहा, 'हे भगीरथ! मैं गंगा को पृथ्वी पर मेज तो दूंगा, पर उनके वेग को कौन रोकेगा? इसलिए तुम्हें देवादिदेव महादेव की आराधना करनी चाहिए।' इस पर भगीरथ ने एक पैर पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना की।उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने गंगा को अपनी जटाओं में रोक लिया और उसमें से एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड़ दिया। इस प्रकार गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ। अब आगे-आगे भगीरथ का रथ और पीछे-पीछे गंगाजी चल रही थीं। मार्ग में जह्नुऋषि का आश्रम था। गंगा उनके कमंडल, दंड आदि को भी अपने साथ बहाकर ले जाने लगीं। यह देख ऋषि ने उन्हें पी लिया। राजा भगीरथ ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो गंगा को नहीं पाकर उन्होंने जह्नुऋषि से प्रार्थना की तथा उनकी वंदना करने लगे। प्रसन्न होकर ऋषि ने अपनी पुत्री बनाकर गंगा को अपने दाहिने कान से निकाल दिया। इसीलिए गंगा को जाह्नवी के नाम से भी जाना जाता है। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण उन्हें भागीरथी भी कहा जाता है। गंगा के कपिल मुनि के आश्रम पहुंचने और गंगाजल के स्पर्शमात्र से मगीरथ के साठ हजार पूर्वजों की मुक्ति हञई तथा वे सभी दिव्यरूप धारण कर दिव्यलोक को चले गए। शिव के जटा से निकली साथ अन्य धाराये है - भागीरथी , जान्हवी , भिलंगना , मंदाकिनी , ऋषिगंगा , सरस्वती और अलकनंदा के नाम से प्रसिद्ध हुईं जो देवप्रयाग में गंगा से मिलती है । भगीरथ के प्रयास की वजह से गंगा धरती पर उतरी है और इसलिए इस नदी को भागीरथी भी कहा जाता है |

मां गंगा के अन्य नाम एवं महत्व

जान्हवी – एक बार जह्नु ऋषि यज्ञ कर रहे थे और गंगा के वेग से उनका सारा सामान बिखर गया। गुस्से में उन्होंने गंगा का सारा पानी पी लिया। जब गंगा ने क्षमा मांगी तो उन्होंने अपने कान से उन्हें वापस बाहर निकाल दिया और अपनी बेटी माना। इसलिए इन्हें जान्हवी कहा जाता है।
मंदाकिनी – गंगा को आकाश की और जाने वाली माना गया है इसलिए इसे मंदाकिनी कहा जाता है। आकाश में फैले पिंडों व तारों के समुह को जिसे आकाश गंगा कहा जाता है। वह गंगा का ही रूप है।
भागीरथी – पृथ्वी पर गंगा का अवतरण राजा भागीरथ की तपस्या के कारण हुआ था। इसलिए पृथ्वी की ओर आने वाली गंगा को भागीरथी कहा जाता है।
शिवाया – गंगा नदी को शिवजी ने अपनी जटाओं में स्थान दिया है। इसलिए इन्हें शिवाया कहा गया है।
पंडिता – ये नदी पंडितों के सामान पूजनीय है इसलिए गंगा स्त्रोत में इसे पंडिता समपूज्या कहा गया है।
मुख्या – गंगा भारत की सबसे पवित्र और मुख्य नदी है। इसलिए इसे मुख्या भी कहा जाता है।
हुगली – हुगली शहर के पास से गुजरने के कारण बंगाल क्षेत्र में इसका नाम हुगली पड़ा। कोलकत्ता से बंगाल की खाड़ी तक इसका यही नाम है।
उत्तर वाहिनी – हरिद्वार से फर्रुखाबाद , कन्नौज, कानपुर होते हुए गंगा इलाहाबाद पहुंचती है। इसके बाद काशी (वाराणसी) में गंगा एक वलय लेती है, जिससे ये यहां उत्तरवाहिनी कहलाती है।
दुर्गाय – माता गंगा को दुर्गा देवी का स्वरुप माना गया है। इसलिए गंगा स्त्रोत में इन्हें दुर्गाय नमः भी कहा गया है।
त्रिपथगा – गंगा को त्रिपथगा भी कहा जाता है। त्रिपथगा यानी तीन रास्तों की और जाने वाली। यह शिव की जटाओं से धरती, आकाश और पाताल की तरफ गमन करती है।

श्री गंगा चालीसा

मात शैल्सुतास पत्नी ससुधाश्रंगार धरावली ।
स्वर्गारोहण जैजयंती भक्तीं भागीरथी प्रार्थये।।

।।दोहा।।
जय जय जय जग पावनी, जयति देवसरि गंग।
जय शिव जटा निवासिनी, अनुपम तुंग तरंग।।

।।चौपाई।।
जय जय जननी हराना अघखानी। आनंद करनी गंगा महारानी।।
जय भगीरथी सुरसरि माता। कलिमल मूल डालिनी विख्याता।।
जय जय जहानु सुता अघ हनानी। भीष्म की माता जगा जननी।।
धवल कमल दल मम तनु सजे। लखी शत शरद चंद्र छवि लजाई।।

वहां मकर विमल शुची सोहें। अमिया कलश कर लखी मन मोहें।।
जदिता रत्ना कंचन आभूषण। हिय मणि हर, हरानितम दूषण।।

जग पावनी त्रय ताप नासवनी। तरल तरंग तुंग मन भावनी।।
जो गणपति अति पूज्य प्रधान। इहूं ते प्रथम गंगा अस्नाना।।

ब्रह्मा कमंडल वासिनी देवी। श्री प्रभु पद पंकज सुख सेवि।।
साथी सहस्त्र सागर सुत तरयो। गंगा सागर तीरथ धरयो।।

अगम तरंग उठ्यो मन भवन। लखी तीरथ हरिद्वार सुहावन।।
तीरथ राज प्रयाग अक्षैवेता। धरयो मातु पुनि काशी करवत।।

धनी धनी सुरसरि स्वर्ग की सीधी। तरनी अमिता पितु पड़ पिरही।।
भागीरथी ताप कियो उपारा। दियो ब्रह्म तव सुरसरि धारा।।

जब जग जननी चल्यो हहराई। शम्भु जाता महं रह्यो समाई।।
वर्षा पर्यंत गंगा महारानी। रहीं शम्भू के जाता भुलानी।।

पुनि भागीरथी शम्भुहीं ध्यायो। तब इक बूंद जटा से पायो
ताते मातु भें त्रय धारा। मृत्यु लोक, नाभा, अरु पातारा।।

गईं पाताल प्रभावती नामा। मन्दाकिनी गई गगन ललामा।।
मृत्यु लोक जाह्नवी सुहावनी। कलिमल हरनी अगम जग पावनि।।

धनि मइया तब महिमा भारी। धर्मं धुरी कलि कलुष कुठारी।।
मातु प्रभवति धनि मंदाकिनी। धनि सुर सरित सकल भयनासिनी।।

पन करत निर्मल गंगा जल। पावत मन इच्छित अनंत फल।।
पुरव जन्म पुण्य जब जागत। तबहीं ध्यान गंगा महं लागत।।

जई पगु सुरसरी हेतु उठावही। तई जगि अश्वमेघ फल पावहि।।
महा पतित जिन कहू न तारे। तिन तारे इक नाम तिहारे।।

शत योजन हूं से जो ध्यावहिं। निशचाई विष्णु लोक पद पावहीं।।
नाम भजत अगणित अघ नाशै। विमल ज्ञान बल बुद्धि प्रकाशे।।

जिमी धन मूल धर्मं अरु दाना। धर्मं मूल गंगाजल पाना।।
तब गुन गुणन करत दुख भाजत। गृह गृह सम्पति सुमति विराजत।।

गंगहि नेम सहित नित ध्यावत। दुर्जनहूं सज्जन पद पावत।।
उद्दिहिन विद्या बल पावै। रोगी रोग मुक्त हवे जावै।।

गंगा गंगा जो नर कहहीं। भूखा नंगा कभुहुह न रहहि।।
निकसत ही मुख गंगा माई। श्रवण दाबी यम चलहिं पराई।।

महं अघिन अधमन कहं तारे। भए नरका के बंद किवारें।।
जो नर जपी गंग शत नामा।। सकल सिद्धि पूरण ह्वै कामा।।

सब सुख भोग परम पद पावहीं। आवागमन रहित ह्वै जावहीं।।
धनि मइया सुरसरि सुख दैनि। धनि धनि तीरथ राज त्रिवेणी।।

ककरा ग्राम ऋषि दुर्वासा। सुन्दरदास गंगा कर दासा।।
जो यह पढ़े गंगा चालीसा। मिली भक्ति अविरल वागीसा।।

।।दोहा।।
नित नए सुख सम्पति लहैं। धरें गंगा का ध्यान।।
अंत समाई सुर पुर बसल। सदर बैठी विमान।।
संवत भुत नभ्दिशी। राम जन्म दिन चैत्र।।
पूरण चालीसा किया। हरी भक्तन हित नेत्र।

देवी गंगा
गंगा आरती

ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।
जो नर तुमको ध्याता, मनवांछित फल पाता।
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।
चंद्र सी ज्योति तुम्हारी, जल निर्मल आता।
शरण पड़े जो तेरी, सो नर तर जाता।
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।
पुत्र सगर के तारे, सब जग को ज्ञाता।
कृपा दृष्टि हो तुम्हारी, त्रिभुवन सुख दाता।
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।
एक बार जो प्राणी, शरण तेरी आता।
यम की त्रास मिटाकर, परमगति पाता।
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।
आरति मातु तुम्हारी, जो नर नित गाता।
सेवक वही सहज में, मुक्ति को पाता।
ॐ जय गंगे माता, मैया जय गंगे माता।

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