भारतीय परंपरा में यदि संवाद स्थापित करने का श्रेय किसी को जाता है तो वो नारद मुनि है। नारद मुनि की छवि एक पत्रकार एक सवांददाता के रुप में जानी जाती है। जो एक जगह की खबर दूसरी जगह बिना कुछ बदलाव किए बताते थे। नारद मुनि को इसी सवांद के लिए उन्हें पहला पत्रकार भी कहा जाता है। नारद मुनि एक सवांदकर्ता होने के साथ-साथ एक गुरु, एक शिक्षक भी थे उन्हें देवों का ऋषि होने के कारण देवर्षि नारद भी कहा जाता है। नारद मुनि भगवान विष्णु के अनन्य भक्त हैं। उनके मुख पर सदा नारायण नारायण नारायण का ही जाप रहता है। नारद मुनि केवल ऐसे देव हैं जिन्हे बिना किसी की आज्ञा के तीनों लोकों, देवों, स्वर्ग, नरक, असुरों एवं धरती-आकाश में आने जाने की बाध्यता नहीं है। वो कभी भी कहीं भी आगमन कर सकते हैं। नारद मुनि को अक्सर एक जगह की बात दूसरी जगह पहुंचाने और लड़ाई लगवाने के लिए भी जाना जाता है। किन्तु उनका पक्ष हमेशा साफ रहता है वो केवल सवांदों का ही आदान प्रदान करते हैं। संदेशों को एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाते हैं। हिन्दू मान्यतताओं के अनुसार नारद मुनि का जन्म सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी की गोद से हुआ था। कहा जाता है कि कठिन तपस्या के बाद नारद को ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त हुआ था। नारद बहुत ज्ञानी थे और इसी वजह से राक्षस हो या देवी-देवता सभी उनका बेहद आदर और सत्कार करते थे। देवर्षि नारद को महर्षि व्यास, महर्षि बाल्मीकि और महाज्ञानी शुकदेव का गुरु माना जाता है। कहते हैं कि नारद मुनि के श्राप के कारण ही भगवान राम को देवी सीता से वियोग सहना पड़ा था। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में इन्हें भगवान का मन भी कहा गया है। नारद मुनि केवल ऐसे देव हैं जिनका आदर देवता ही नहीं बल्कि असुर भी करते हैं। देवर्षि नारद की बात का सभी अनुसरण करते हैं। उनकी बातों पर विश्वास करते हैं। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारदजी का सदा से प्रवेश रहा है। समय-समय पर सभी देवों, असुरों ने उनसे परामर्श लिया है क्योंकि देवर्षि नारद एक प्रख्यात परामर्शकर्ता भी हैं उन्होंने कितने ही लोगों को ज्ञान देकर उनका कल्याण किया है।
नारद मुनि का स्वरुप
मान्यता है कि देवर्षि नारद भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। श्री हरि विष्णु को भी नारद अत्यंत प्रिय हैं। नारद हमेशा अपनी वीणा की मधुर तान से विष्णुय जी का गुणगान करते रहते हैं। वे अपने मुख से हमेशा नारायण-नारायण का जप करते हुए विचरण करते रहते हैं। यही नहीं माना जाता है कि नारद अपने आराध्यन विष्णुन के भक्तों की मदद भी करते हैं। मान्यता है कि नारद ने ही भक्त प्रह्लाद, भक्त अम्बरीष और ध्रुव जैसे भक्तों को उपदेश देकर भक्तिमार्ग में प्रवृत्त किया था। नारद मुनि एक महान संगीतकार, संवाददाता और लेखक भी हैं। उन्होंने 'देवकर्त्र' एक धार्मिक पुस्तक का भी संपादन किया है। जिसमें वैष्णवजनों के लिए मदिंरों और पूजा के महत्व और उनके तरीकों के बारे में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। देवर्षि नारद की भूमिका के बारे में भगवत पुराण, गीता एवं रामायण में भी उल्लेख किया गया है। नारद मुनि को एक ऋषि के रूप में चित्रित किया गया है जिसमें फूलों से सजे बालो का जुड़ा बना होता है। उनकी गर्दन के चारों ओर माला लटकती रहती है। हांथों में वीणा लिए भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए वो नारायण नारायण का जाप करते रहते हैं। देवर्षि नारद सदैव विचरते रहते हैं वो एक स्थान पर कभी नहीं ठहरते। नारद मुनि को त्रिलोक संचार्य भी कहा जाता है क्योंकि वो तीनों लोक के ज्ञाता हैं। मृत्युलोग, पटलोग, स्वर्गलोक में वो सर्वज्ञ व्यापत हैं। नारद मुनि का एक अन्य नाम कलहप्रिय है क्योंकि वो सभी देवी-देवताओं और असुरों में कलह यानि झगड़ा करवाते रहते हैं। देवर्षि नारद को श्रुति-स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष और योग जैसे कई शास्त्रों का प्रकांड विद्वान माना जाता है। देवर्षि नारद के सभी उपदेशों का निचोड़ है-
सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितै: भगवानेव भजनीय:। अर्थात् सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल भगवान का ही ध्यान करना चाहिए। देवर्षि नारद व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भागवत, जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ-रत्न है तथा रामायण, जो मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सकें हैं। इन्होंने ही प्रह्लाद, ध्रुव, राजा अम्बरीष आदि महान् भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये भागवत धर्म के परम-गूढ़ रहस्य को जानने वाले- ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वयंभुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित भक्तिसूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है
नारद मुनि का जन्म
नारद मुनि के जन्म को लेकर एक प्रचलित कथा है जिसके अनुसार पूर्व कल्प में नारद 'उपबर्हण' नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएँ और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्स्रष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ श्रृंगार भाव से वहाँ आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा क्रोधित हो गये और उन्होंने उसे 'शूद्र योनि' में जन्म लेने का शाप दे दिया। शाप के फलस्वरूप वह 'शूद्रा दासी' का पुत्र हुआ। माता पुत्र साधु संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पाँच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाता था, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गये। बालक की सेवा से प्रसन्न हो कर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया। शूद्रा दासी की मृत्यु हो गयी। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गये। उस समय इनकी अवस्था मात्र पाँच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिये चल पड़े। एक दिन वह पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठा थे कि उनके हृदय में भगवान की एक झलक विद्युत रेखा की भाँति दिखायी दी और तत्काल अदृश्य हो गयी। उसके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देख कर आकाशवाणी हुई - हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुन: प्राप्त करोगे।' समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया। समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अन्त में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए।
जब नारद मुनि को मिला श्राप
शास्त्रों के अनुसार ब्रह्राजी ने नारद जी से सृष्टि के कामों में हिस्सा लेने और विवाह करने के लिए कहा लेकिन उन्होंने अपने पिता की आज्ञा का पालन करने से मना कर दिया। तब क्रोध में बह्राजी ने देवर्षि नारद को आजीवन अविवाहित रहने का श्राप दे दिया। पुराणों में ऐसा भी लिखा गया है कि राजा प्रजापति दक्ष ने नारद को श्राप दिया था क्योंकि वो उनके सभी पुत्रों को सांसरिक जीवन से विमुक्त कर सन्यासियों का जीवन जीने की शिक्षा देते थे जिसके कारण राजा दक्ष ने नारद मुनि को श्राप देते हुए कहा कि वो कभी किसी कहीं भी दो मिनट से ज्यादा नहीं ठहरेंगें। हमेशा यात्रा करते रहेंगें। यही कारण है कि नारद मुनि एक स्थान पर अधिक देर नहीं रुकते वो हमेशा भ्रमण करते रहते हैं।
जब नारद मुनि को बनना पड़ा बंदर
नारद मुनि भगवान विष्णु के परम भक्त है। किन्तु एक दिन उन्हें अपने उपर अभिमान हो गया था क्योंकि उन्होंने कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली थी। एक दिन नारद मुनि हिमालय पर्वत पर भगवान विष्णु का ध्यान करने लगे उन्हें ध्यान करता देख इन्द्र को लगा कि कहीं यह मेरा सिंहासन ना मांग ले इसलिए उन्होंने कामदेव को उनकी तपस्या भंग करने के लिए भेजा। किन्तु कामदेव के प्रभावों का नारद मुनि पर कोई असर नहीं हुआ कामदेव उनसे क्षमां मांग कर चले गए। इस बात से नारद मुनि को अपने उपर घंमड हो गया कि उन्होंने कामदेव को हरा दिया। यह बात उन्होंने शिवजी को बताई किन्तु शिव भी नारद मुनि के भावों को समझ गए थे उन्होंने यह बात विष्णु भगवान से बताने को मना की। लेकिन नारद ने उनकी बात नहीं मानी और भगवान विष्णु से कह दिया कि उन्होंने कामदेव को पराजित किया है। भगवान विष्णु ने नारद मुनि का घमंड तोड़ने के लिए रास्ते में सुन्दर नगर को बना दिया। उस नगर में शीलनिधि नाम का वैभवशाली राजा रहता था। उस राजा की विश्व मोहिनी नाम की बहुत ही सुंदर बेटी थी, जिसके रूप को देख कर लक्ष्मी भी मोहित हो जाएं। विश्व मोहिनी स्वयंवर करना चाहती थी इसलिए कईं राजा उस नगर में आए हुए थे। नारद जी उस नगर के राजा के यहां पहुंचे तो राजा ने उनका पूजन कर के उन्हें आसन पर बैठाया। फिर उनसे अपनी कन्या की हस्तरेखा देख कर उसके गुण-दोष बताने के लिया कहा। उस कन्या के रूप को देख कर नारद मुनि वैराग्य भूल गए और उसे देखते ही रह गए। नारद जी ने सोचा कि कुछ ऐसा उपाय करना चाहिए कि यह कन्या मुझसे ही विवाह करे। ऐसा सोचकर नारद जी ने श्री हरि को याद किया और भगवान विष्णु उनके सामने प्रकट हो गए। नारद जी ने उन्हें सारी बात बताई और कहने लगे, हे नाथ आप मुझे अपना सुंदर रूप दे दो, ताकि मैं उस कन्या से विवाह कर सकूं। हरि ने कहा हे नारद! हम वही करेंगे जिसमें तुम्हारी भलाई हो। यह सारी विष्णु जी की ही माया थी । नारद मुनि स्वंयवर में पहुंच गए। साथ मे शिवजी के दोनों गण भी ब्राह्मण का रूप बना कर वहां पहुंच गए। विश्व मोहिनी ने कुरूप नारद की तरफ देखा भी नहीं और राजा रूपी विष्णु के गले में वरमाला डाल दी। मोह के कारण नारद मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी । राजकुमारी द्वारा अन्य राजा को वरमाला डालते देख वे परेशान हो उठे। उसी समय शिव जी के गणों ने ताना कसते हुए नारद जी से कहा- जरा दर्पण में अपना मुंह तो देखिए। मुनि ने जल में झांक कर अपना मुंह देखा और अपनी कुरूपता और बंदर के जैसा मुख देख कर गुस्सा हो उठें। गुस्से में आकर उन्होंने शिव जी के उन दोनों गणों को राक्षस हो जाने का शाप दे दिया। उन दोनों को शाप देने के बाद जब मुनि ने एक बार फिर से जल में अपना मुंह देखा तो उन्हें अपना असली रूप फिर से मिल चुका था। नारद जी को अपना असली रूप वापस मिल गया था। लेकिन भगवान विष्णु पर उन्हें बहुत गुस्सा आ रहा था, क्योंकि विष्णु के कारण ही उनकी बहुत ही हंसी हुई थी। वे उसी समय विष्णु जी से मिलने के लिए चल पड़े। रास्ते में ही उनकी मुलाकात विष्णु जी जिनके साथ लक्ष्मी जी और विश्व मोहिनी भी थीं से हो गई। नारद मुनि ने भगवान विष्णु से कहा कि आपने मनुष्य रूप धारण करके विश्व मोहिनी को प्राप्त किया है , इसलिए मैं आपको शाप देता हूं कि आपको मनुष्य जन्म लेना पड़ेगा। आपने हमें स्त्री से दूर किया है , इसलिए आपको भी स्त्री से दूरी का दुख सहना पड़ेगा और आपने मुझको बंदर का रूप दिया इसलिए आपको बंदरों से ही मदद लेना पड़े। किन्तु बाद में नारद जी को अपनी गलती का एहसास हुआ औऱ उन्होंने भगवान विष्णु से क्षमा मांगी।
नारद जी की पूजा
भगवान नारद की पूजा नारद जयंती के दिन विशेष रुप से होती है। भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी का पूजन नारद जी के साथ इस दिन करना चाहिए। इसके बाद नारद मुनि की भी पूजा करें। गीता और दुर्गासप्त शती का पाठ करें। इस दिन भगवान विष्णु के मंदिर में भगवान श्री कृष्ण को बांसुरी भेट करें। अन्नत और वस्त्रों का दान करें। इस दिन कई भक्त लोगों को ठंडा पानी भी पिलाते हैं।