भगवान कार्तिकेय का स्वरूप
भगवान कार्तिकेय या मुरुगन का स्वरूप एक छोटे से बालक का है। यह मोर पर बैठे हुए हैं तथा इनके माथे पर मोर पंख का मुकुट है। इनके चेहरे पर मंद मुस्कान रहती है। इनका एक हाथ वर मुद्रा में है तथा एक हाथ में तीर जैसा दिखने वाला शस्त्र है। कई जगह मुरुगन (भगवान कार्तिकेय) के छह मुख भी दिखाए गए हैं। भगवान कार्तिकेय के छः मुख छः सदेश देते हैं। यह काम(वासना), क्रोध(गुस्सा), लोभ(लालच), मोह(लगाव), माया(संसारिक बंधन), मत्सर्य(ईर्ष्या) पर विजय प्राप्ति का संदेश देते हैं। भगवान कार्तिकेय के हाथ में तीर जैसे दिखने वाले भाले का नाम शक्ति है। जो मनुष्यों में नकारात्मक प्रवृत्तियों के विनाश का प्रतीक है और उनका दूसरा हाथ भक्तों को आशीर्वाद देने की मुद्रा में होता है। भगवान कार्तिकेय मोर की सवारी करते हैं। उनका प्रिय वाहन मोर ही है। मोर बंधनों को काटने का प्रतित है। भगवान कार्तिकेय के पैर के नीचे सांप होता है जो अंहकार और लोगों की इच्चाओं का प्रतिक है जिसे नीचे रखना चाहिए। मुरुगन भगवान कार्तिकेय का ही दूसरा नाम है इनके पिता भगवान शिव और माता देवी पार्वती हैं। इनका एक भाई और एक बहन भी है जिनका नाम “गणेश” और अशोक सुन्दरी(बहन) है। इनका विवाह देवी देवसेना से हुआ था। कार्तिकेय स्वामी सेनाधिप हैं, शक्ति के अधिदेव हैं, प्रतिष्ठा, विजय, व्यवस्था, अनुशासन सभी कुछ इनकी कृपा से सम्पन्न होते हैं। कृत्तिकाओं ने इन्हें अपना पुत्र बनाया था, इस कारण इन्हें ‘कार्तिकेय’ कहा गया, देवताओं ने इन्हें अपना सेनापतित्व प्रदान किया। मयूर पर आसीन देवसेनापति कुमार कार्तिक की आराधना दक्षिण भारत मे सबसे ज्यादा होती है, यहाँ पर यह ‘मुरुगन’ नाम से विख्यात हैं। स्कन्दपुराण के मूल उपदेष्टा कुमार कार्तिकेय ही हैं तथा यह पुराण सभी पुराणों में सबसे विशाल है। भगवान कार्तिकेय को समर्पित स्कंदषष्ठी पूजा उनके द्वारा मारे गए राक्षस तारकासुर और सुरपदान पर विजयी का प्रतिक है। यह म धारणा है कि अगर कोई शुक्रवार को भगवान मुरुगन या कार्तिकेय की पूजा करता है, उस दिन उनका उपवास रखता है तो उसकी सारी इच्छाएं पूरी हो जाएगीं।कार्तिकेय की जन्म कथा
भगवान कार्तिकेय का जन्म यूं तो राक्षसों को मारने के लिए हुआ था किन्तु उनके जन्म के पीछे एक विस्तृत कहानी छिपी है। स्कंद पुराण के अनुसार भगवान शिव ने राक्षस तारकासुर की तपस्या से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि तारकासुर की हत्या केवल उनका पुत्र कर सकता है और कोई नहीं। जिसके पश्चात राजा दक्ष की पुत्री और शिव जी की पत्नी देवी सती अपने पिता के द्वारा शिव को अपमानित किए जाने, उन्हें सभी देवताओं के समान ना आमंत्रित किए जाने से नाराज थी। जिसके क्रोध स्वरुप उन्होंने हवन में कूद कर अपने प्राण त्याग दिए। सती की मृत्यु के बाद भगवान शिव ध्यान में क्रोधपूर्वक मग्न हो गए और तारकासुर का आंतक बढ़ता चला गया। तारकासुर के वध के लिए शिवजी का संतान होनी आवश्यक थी जिसके लिए उनका ध्यान तोड़ना जरुरी था। सभी देवताओं ने मिलकर कामदेव की मदद से भगवान शिव का ध्यान तोड़ा जिसका परिणाम यह हुआ कि भगवान शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया। जिसके बाद उन्हें पुनर्जिवित किया और भगवान शिव ने माता पार्वती से विवाह किया। विवाह के पश्चात जब शिव और पार्वती एकांतवास में थे तो शिव जी का बिज(वीर्य) वहां गिर गया। जिसे अग्निदेव ने उस अमोघ वीर्य को कबूतर का रूप धारण करके ग्रहण कर लिया व तारकासुर से बचाने के लिए उसे लेकर जाने लगे। किंतु उस वीर्य का ताप इतना अधिक था की अग्निदेव से भी सहन नहीं हुआ। अग्निदेव ने उसे गंगा नदी सहित छ जगहों पर गिरा दिया। जिसके परिणामस्वरुप शिवजी के 6 पुत्र हुए। जगंलों में विचरण करने वाली छह कृतिका कन्याओं की दृष्टि जब उन बालकों पर पडी तब उनके मन में उन बालकों के प्रति मातृत्व भाव जागा। और वो सब उन बालकों को लेकर उनको अपना स्तनपान कराने लगी। उसके पश्चात वे सब उन बालकोँ को लेकर कृतिकालोक चली गई व उनका पालन पोषण करने लगीं। जब इन सबके बारे में शिव पार्वती को पता चला तो वो दोनों अपने पुत्र से मिलने के लिए व्याकुल हो उठे, व कृतिकालोक चल पड़े। जब माँ पार्वती ने अपने छह पुत्रों को देखा तब वो मातृत्व भाव से भावुक हो उठी, और उन्होने उन बालकों को इतने ज़ोर से गले लगा लिया की वे छह शिशु एक ही शिशु बन गए जिसके छह शीश थे। तत्पश्चात शिव पार्वती ने कृतिकाओं को सारी कहानी सुनाई और अपने पुत्र को लेकर कैलाश वापस आ गए। कृतिकाओं के द्वारा लालन पालन होने के कारण उस बालक का नाम कार्तिकेय पड़ गया। तभी से उन्हें छः मुख वाला भगवान मानकर कार्तिकेय की पूजा की जाता है। बड़े होकर कार्तिकेय ने दानव तारकासुर का संहार किया। और देवताओं को उसके भय से भयमुक्त किया।बालक रुप में ही क्यों दिखते है कार्तिकेय
भगवान कार्तिकेय को हमेशा एक बालक के रूप में ही दर्शाया जाता है, वे विवाहित हैं, महायोद्धा हैं लेकिन फिर भी उनका स्वरूप एक बालक का ही है क्योंकि उनकी माता पार्वती ने उन्हें एक ऐसा श्राप दे दिया था जिसके बाद वह कभी अपनी बाल्यावस्था को त्याग ही नहीं पाए। उनके इस बालक स्वरूप के पीछे भी एक रहस्यमय कहानी छिपी हुई है। कहा जाता है कि एक बार शंकर भगवान ने पार्वती के साथ जुआ खेलने की इच्छा प्रकट की। हारने के बाद भगवान शिव पत्तों के वस्त्र पहनकर गंगा के तट पर चले गए। जब उनके पुत्र कार्तिकेय को इस घटना का पता चला तो वह अपनी मां के पास शिव की हारी हुई वस्तुएं लेने गए। कार्तिकेय ने जुए के खेल में अपने पिता को हराया और सारी वस्तुओं के साथ अपनी मां के पास लौट आए। उन्हें देखकर पार्वती बोलीं कि उन्हें अपने पिता को भी साथ लाना चाहिए था। गणेश फिर से अपने पिता की खोज के लिए निकल गए। उन्हें हरिद्वार जाकर शिव के दर्शन हुए। उस समय भगवान शिव, विष्णु और कार्तिकेय गंगा के किनारे भ्रमण कर रहे थे। भोलेनाथ ने कहा कि अगर पार्वती फिर से एक बार उनके साथ जुआ खेलती हैं तो वे वापस चलने के लिए तैयार हैं। भोलेनाथ के कहने पर विष्णु पासे के रूप में जुए के खेल में शामिल हो गए। गणेश जी ने आश्वासन दिया कि पार्वती उनके साथ अवश्य खेलेंगी। जब गणेश अपने पिता को लेकर पार्वती के पास पहुंचे और उन्हें फिर से एक बार जुआ खेलने के लिए कहा तो पार्वती हंसने लगीं। उहोंने शिव से कहा कि उनके पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे जुए पर दांव पर लगाया जाए। इतने में वहां नारद आ गए जिन्होंने अपनी वीणा और अन्य सामग्रियां शिव को दे दीं ताकि वे जुआ खेल सकें। जुए का खेल शुरू हुआ और पार्वती लगातार हारने लगीं। विष्णु पासे के रूप में शिव के अनुसार चल रहे थे, जिसके परिणामस्वरूप पार्वती को हर बार हार का सामना करना पड़ा। गणेश जी समझ गए कि पासे उनके पिता के अनुसार चल रहे हैं और उन्होंने ये सारा रहस्य अपनी माता को बता दिया। सारी घटना को सुनने के बाद पार्वती क्रोधित हो गईं और सभी को श्राप दे दिया। उन्होंने भोलेनाथ को श्राप दिया कि गंगा की धारा का बोझ हमेशा उनके सिर पर रहेगा। नारद को हमेशा भटकते रहने का श्राप दिया। भगवान विष्णु को यह श्राप दिया कि रावण उनका सबसे बड़ा और ताकतवर शत्रु होगा और साथ ही अपने पुत्र कार्तिकेय को यह श्राप दिया कि वह हमेशा बाल स्वरूप में ही रहेंगे।कार्तिकेय की पूजा
शास्त्रों के अनुसार पुराणों में स्कंद षष्ठी पर भगवान कार्तिकेय की पूजा का विशेष महत्व है। इस दिन भगवान कार्तिकेय का पूजन मनोकामना सिद्धि को पूर्ण करने में सहायक सिद्ध होता है। स्कंद षष्ठी एवं चम्पा षष्ठी के दिन भगवान कार्तिकेय के पूजन से रोग, राग, दुःख और दरिद्रता का निवारण होता है। पौराणिक धर्मग्रंथों के अनुसार शिव-पार्वती के पुत्र कार्तिकेय को युद्ध का देवता माना जाता है।दक्षिण भारत में उन्हें मुरुगन या अयप्पा नाम से जाना जाता है। शास्त्रों के अनुसार स्कंद षष्ठी के दिन स्वामी कार्तिकेय ने तारकासुर नामक राक्षस का वध किया था इसलिए इस दिन भगवान कार्तिकेय के पूजन से जीवन में उच्च योग के लक्षणों की प्राप्ति होती है। कार्तिकेय को शक्ति और ऊर्जा का प्रतीक माना जाता हैं। शास्त्रों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि स्कंद षष्ठी एवं चम्पा षष्ठी के महायोग का व्रत करने से काम, क्रोध, मद, मोह, अहंकार से मुक्ति मिलती है और सन्मार्ग की प्राप्ति होती है। पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु ने माया-मोह में पड़े नारदजी का इसी दिन उद्धार करते हुए लोभ से मुक्ति दिलाई थी। इस दिन भगवान विष्णु के पूजन-अर्चन का विशेष महत्व है। इस दिन ब्राह्मण भोज के साथ स्नान के बाद कंबल, गरम कपड़े दान करने से विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है।भगवान कार्तिकेय के अन्य नाम
भूतेशभगवत्
महासेन
शरजन्मा
षडानन
पार्वतीनन्दन
स्कन्द
सेनानी
अग्निभू
गुह
बाहुलेय
तारकजित्
विशाख
शिखिवाहन
शक्तिश्वर
कुमार
क्रौञ्चदारण
भगवान कार्तिकेय का गायत्री मंत्र
ओम तत्पुरुषाय विधमहे:महा सैन्या धीमहि
तन्नो स्कन्दा प्रचोद्या
भगवान कार्तिकेय का मंत्र
हरे मुरूगा हरे मुरूगा शिवा कुमारा हरो हराहरे कंधा हारे कंधा हारे कंधा हरो हरा
हरे षण्मुखा हारे षण्मुखा हारे षणमुखा हरो हरा
हरे वेला हरे वेला हारे वेला हरो हरा
हरे मुरूगा हरे मुरूगा ऊं मुरूगा हरो हरा
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