जल जीवन के लिए बेहद आवश्यक है। जल के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। मनुष्य हो या पशु-पक्षी सभी के लिए जल बहुत जरुरी है। हमारे शरीर की तरह ही पृथ्वी के तीन हिस्सों में जल का ही स्त्रोत है। इसलिए जल की महत्वता अपने आप में आश्यक हो जाती है। जल की इसी महत्वता को स्वीकारते हुए वरुण देव को सर्वोच्च देवता माना जाता है। तीनों लोक के देवता, ब्रह्मा, विष्णु और महेश के बाद वरुण देव का ही स्थान आता है। वरुण देव को वैदक काल से ही वर्षा लाने का स्त्रोत माना जाता है। भगवान वरुण को सर्वज्ञानी कहा जाता है। वह सभी जल निकायों के स्वामी है और ऋग्वेद में उन्हें सबसे प्रमुख देव में से एक माना गया है। वरुण जल के देवता के रूप में पूजे जाते हैं। सृष्टि के आधे से ज्यादा हिस्से पर इन्हीं का अधिकार है। पंच तत्वों में भी जल का महत्व सर्वाधिक है। प्राचीन काल से ही सिद्ध महापुरुष वरुण हुआ है। इसलिए इनकी पूजा देवता के रूप में की जाती है। प्राचीन वैदिक धर्म में वरुण देव का स्थान बहुत महत्वपूर्ण था पर वेदों से उनका रूप इतना अमूर्त है कि उसका प्राकृतिक चित्रण मुश्किल है। इंद्र को महान योद्धा के रूप में जाना जाता है तो वरुण को नैतिक शक्ति का महान पोषक माना गया है। वरुण से संबंधित प्रार्थनाओं में भक्ति भावना की पराकाष्ठा दिखाई देती है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के सातवें मंडल में वरुण के लिए सुंदर प्रार्थना गीत मिलते हैं। उनके पास जादुई शक्ति मानी जाती थी, जिसका नाम था माया। वरुण देवताओं के देवता हैं। देवताओं के तीन वर्गों (पृथ्वी,वायु और आकाश) में वरुण का सर्वोच्च स्थान है। देवताओं में तीसरा स्थान ‘वरुण’ का माना जाता है जो समुद्र के देवता, विश्व के नियामक और शसक सत्य के प्रतीक, ऋतु परिवर्तन एवं दिन रात के कर्ता-धर्ता, आकाश, पृथ्वी एवं सूर्य के निर्माता के रूप में जाने जाते हैं।
वरुण देव

वरुण के भाई मित्र

ऋग्वेद का 7वां मंडल वरुण देवता को समर्पित है। कहते हैं कि किसी भी रूप में उनका दुरुपयोग सही नहीं है। वह क्रोधित हो जाएं तो दंड के रूप में लोगों को जलोदर रोग देते हैं। मकर पर विराजमान मित्र और वरुण देव दोनों भाई हैं और यह जल जगत के देवता है। उनकी गणना देवों और दैत्यों दोनों में की जाती है। भागवत पुराण के अनुसार वरुण और मित्र को कश्यप ऋषि की पत्नीं अदिति की क्रमशः नौंवीं तथा दसवीं संतान बताया गया है। मित्र देव का शासन सागर की गहराईयों में है और वरुण देव का समुद्र के ऊपरी क्षेत्रों, नदियों एवं तटरेखा पर शासन हैं। वेदों में इनका उल्लेख प्रकृति की शक्तियों के रूप में मिलता है जबकि पुराणों में ये एक जाग्रत देव हैं। हालांकि वेदों में कहीं कहीं उन्हें देव रूप में भी चित्रित किया गया है। वरुण देव देवों और दैत्यों में सुलह करने के लिए भी प्रसिद्ध हैं। वेदों में मित्र और वरुण की बहुत अधिक स्तुति की गई है, जिससे जान पड़ता है कि ये दोनों वैदिक ऋषियों के प्रधान देवता थे। वेदों में यह भी लिखा है कि मित्र के द्वारा दिन और वरुण के द्वारा रात होती है। पहले किसी समय सभी आर्य मित्र की पूजा करते थे, लेकिन बाद में यह पूजा या प्रार्थना घटती गई। मित्र और वरुण इन दोनों की संतानें भी अयोनि मैथुन यानि असामान्य मैथुन के परिणामस्वरूप हुई बताई गई हैं। उदाहरणार्थ वरुण के दीमक की बांबी (वल्मीक) पर वीर्यपात स्वरूप ऋषि वाल्मीकि की उत्पत्ति हुई। जब मित्र एवं वरुण के वीर्य अप्सरा उर्वशी की उपस्थिति में एक घड़े में गिर गए तब ऋषि अगस्त्य एवं वशिष्ठ की उत्पत्ति हुई। मित्र की संतान उत्सर्ग, अरिष्ट एवं पिप्पल हुए जिनका गोबर, बेर वृक्ष एवं बरगद वृक्ष पर शासन रहता है। वरुणदेवता को ईरान में 'अहुरमज्द' तथा यूनान में 'यूरेनस' के नाम से जाना जाता है। वरुण के साथ आप: का भी उल्लेख किया गया है। आप: का अर्थ होता है जल। मित्रःदेव देव और देवगणों के बीच संपर्क का कार्य करते हैं। वे ईमानदारी, मित्रता तथा व्यावहारिक संबंधों के प्रतीक देवता हैं।

भगवान झुलेलालवरुण देव या झुलेलाल

वरुण देव को सिंधि समाज में झूलेलाल के नाम से जाना जाता है। झूलेलाल सिन्धी हिन्दुओं के उपास्य देव हैं जिन्हें 'इष्ट देव' कहा जाता है। उनके उपासक उन्हें वरुण (जल देवता) का अवतार मानते हैं। वरुण देव को सागर के देवता, सत्य के रक्षक और दिव्य दृष्टि वाले देवता के रूप में सिंधी समाज भी पूजता है। उनका विश्वास है कि जल से सभी सुखों की प्राप्ति होती है और जल ही जीवन है। जल-ज्योति, वरुणावतार, झूलेलाल सिंधियों के ईष्ट देव हैं जिनके बागे दामन फैलाकर सिंधी यही मंगल कामना करते हैं कि सारे विश्व में सुख-शांति, अमन-चैन, कायम रहे और चारों दिशाओं में हरियाली और खुशहाली बने रहे। भगवान झूलेलाल के अवतरण दिवस को सिंधी समाज चेटीचंड के रूप में मनाता है। कुछ विद्वानों के अनुसार सिंध का शासक मिरखशाह अपनी प्रजा पर अत्याचार करने लगा था जिसके कारण सिंधी समाज ने 40 दिनों तक कठिन जप, तप और साधना की। तब सिंधु नदी में से एक बहुत बड़े नर मत्स्य पर बैठे हुए भगवान झूलेलाल प्रकट हुए और कहा मैं 40 दिन बाद जन्म लेकर मिरखशाह के अत्याचारों से प्रजा को मुक्ति दिलाउंगा। चैत्र माह की द्वितीया को एक बालक ने जन्म लिया जिसका नाम उडेरोलाल रखा गया। अपने चमत्कारों के कारण बाद में उन्हें झूलेलाल, लालसांई, के नाम से सिंधी समाज और ख्वाजा खिज्र जिन्दह पीर के नाम से मुसलमान भी पूजने लगे हैं।

वरुण देव की कथा

हिन्दू पौराणिक कथाओं के अनुसार वरुण के पुत्र पुष्कर इनके दक्षिण भाग में सदा उपस्थित रहते हैं। अनावृष्टि के समय भगवान वरुण की उपासना प्राचीन काल से होती आई है। एक बार महर्षि दुर्वासा को वरुण ने भोजन के लिए बुलाया। दुर्वासा एक बार में बहुत खा लेते थे। फिर महीनों नहीं खाते। वरुण देव का पुत्र वारुणी भी वहीं बैठा था। दुर्वासा को खाते देख उसे हंसी आ गई। दुर्वासा महर्षि क्रोधी तो हैं ही, दुर्वासा ने वारुणी को शाप दे दिया, जा तू ऐसा हाथी हो जिसका पेट हाथी का और मुंह बकरी का होगा। वारुणी वैसे ही हाथी हो गया। ऐसे हाथी का पेट कैसे भरे जिसका मुख बकरी का हो। अंत में श्री रामेश्वर के पास मदुरै की तरफ जाकर तपस्या की तथा भगवती ने प्रसन्न होकर उसे उस योनि से मुक्त किया। वरुण को खगोलीय जल बारिश, महासागरों आदि का देव मान पूजा की जाती है। वरुण देव को गलत कार्यों के प्रति क्रोधित माना जाता है। वो गलत कर्म करने पर दंड़ित करते हैं। भगवान राम ने भी सेतु के निर्माण के लिए वरुण देव की पूजा की थी। वरुण देव यमराज की तरह ही मृत्यु के देवता हैं।

भगवान वरुण का स्वरुप

मकर या समुद्र राक्षस भगवान वरुण का पर्वत है। भगवान वरुण में एक हाथ में सांप से बने नाक या लासो होते हैं। वरुण का मुख्य अस्त्र पाश है। वरुण के पुत्र पुष्कर इनके दक्षिण भाग में सदा उपस्थित रहते हैं। भगवान वरुण मकर यानि मगरमच्छ की सवारी करते हैं। अनावृष्टि के समय भगवान वरुण की उपासना प्राचीन काल से होती है। ये जलों के स्वामी, जल के निवासी हैं। श्रुतियों में वरुण की स्तुतियाँ हैं।

वरुण देव की पूजा

वरुण देव की पूजा की पूजा ज्येष्ठ माह में की जाती है। वरुण देव की पूजा गंगा की पूजा के साथ होती है। इनके पूजन करने से सभी रोगों का नाश, मनोकामनाओं की पूर्ती तथा दुखों का नाश होता है। वरुण देव की पूजा के लिए घर के मंदिर में ईशान कोण में लाल कपड़ा बिछाकर पानी से भरे हुए तांबे के कलश में गंगाजल मिलाकर उसे स्थापित कर विधिवत पंचोपचार पूजन करें। कलश में दूध, शहद, जौ, अक्षत, मूंग, गुड व शहद मिलाएं। सिंदूर मिले घी का दीपक जलाए, सुगंधित धूप जलाएं सिंदूर से तिलक करें, लाल फूल चढ़ाएं खीर का भोग लगाएं तथा पूजा के बाद भोग को जल में प्रवाहित कर दें। ॐ अपां पतये वरुणाय नमः॥ इस मंत्र का जाप करें। वरुण देव पर चांदी के सिक्के चढा कर उसे पानी में डालकर रोज़ स्नान करने से सभी रोगों का नाश होता है। जल में अपनी छाया देखकर चंद्रमा को अर्घ्य देने से मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। वरुण देव पर सफ़ेद चंदन चढ़ा कर उससे रोज़ तिलक करने से सभी दुखों का नाश होता है। 

वरुण देव के मंत्र

ॐ अपां पतये वरुणाय नमः
एवं
ॐ वाम वरुणाय नमः

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