गुरु गोबिंद सिंह का जीवन परिचय
गुरु गोबिन्द जी को बचपन में गोबिन्द राय कहा जाता था| गुरु गोबिन्द जी का जन्म उनके पिता गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के घर बिहार स्थित पटना में 22 दिसम्बर 1666 को हुआ था। उनके पिता नोंवें सिख गुरु थे तथा उनके बाद ही गुरु गोबिन्द जी को दसवां गुरु माना गया था| जब वह जन्मे थे तब उनके पिता असम में धर्म उपदेश के लिए गए थे। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था उस जगह अब तखत श्री पटना साहिब स्थित है कहा जाता है की गुरु गोबिन्द जी के शुरुआती जीवन के चार साल वही बिते थे। जब तेग बहादुर असम की यात्रा में गए थे। उससे पहले ही होने वाले बच्चे का नाम गुरु गोविंद सिंह रख दिया गया था। जिसके कारण उन्हे बचपन में गोविंद राय कहा जाता था। गुरु गोविंद बचपन से ही अपनी उम्र के बच्चों से बिल्कुल अलग थे। जब उनके साथी खिलौने से खेलते थे। और गुरु गोविंद सिंह तलवार, कटार, धनुष से खेलते थे। पटना से ही गोविंद सिंह ने संस्कृत, अरबी और फारसी की शिक्षा प्राप्त की थी। इस समय़ भी पटना के एक गुरद्वारा जो भौणी साहब के नाम से जाना जाता है। वहां पर आपको गुरु गोविंद सिंह के बचपन में पहने हुए खड़ाऊं, कटार, कपड़े और छोटा सा धनुष-बाण रखा हुआ है। जब गुरु गोविंद सिंह छोटे थे तभी गुरु तेगबहादुर ने उनकी शिक्षा के लिए आनंदपुर में समुचित व्यवस्था की गई थी। जिसके कारण वह थोडे समय में कई भाषाओं में महारत हासिल कर लिया था। संवत् 1731 जब मुगल शासक औरंगजेब के अत्याचार बढते चले जा रहे थे। वह कश्मीरी पंडितों में घोर अत्याचार कर रहा था। जिसके कारण यह लोग गुरु तेगबहादुर की शरण में आए। 1670 में उनका परिवार पंजाब में वापस आ गया और मार्च 1672 में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाडीयों में चक्क नानकी नामक जगह पर आ गया जो आजकल आनंदपुर साहेब कहलता है| और गुरु गोबिन्द जी की शिक्षा यहीं पर आरम्भ हुई थी। गोबिन्द जी ने फारसी संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और एक योद्धा बनने के लिए अस्त्र सस्त्र का भी ज्ञान प्राप्त किया। गुरु गोबिन्द जी जब आनंदपुर साहेब में आध्यात्मिक शिक्षा देते थे तब लोगों को नैतिकता, निडरता और आध्यात्मिक जागृति का ज्ञान भी दिया करते थे| गोबिन्द जी शांति, क्षमा, सहनशीलता परिपूर्ण थे उनकी सिख में लोगों में समता, समानता और समरसता का भरपूर ज्ञान था वे लोग रंग भेद भाव आदि में विश्वास नहीं करते थे। जिस समय गुरु गोबिंद सिंह जी का जन्म हुआ था उस समय मुगलों का शासन था जिनके अत्याचार से जनता पीडित थी। कश्मीरी पंडितों का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाया जाता था उसके खिलाफ शिकायत को लेकर और खुद इस्लाम को स्वीकार नहीं किया था। मुगलों के अत्याचार से परेशान होकर जनता गुरु तेज बहादूर सिंह के पास आई। जब गुरु तेग बहादुर सिंह ने उनकी मदद की तो 11 नवम्बर 1675 को औरंगजेब ने दिल्ली में चांदनी चौक में सभी के सामने गुरु तेग बहादुर मतलब गुरु गोबिन्द जी के पिता जी का सर कटवा दिया जिसके बाद 29 मार्च 1676 को गोबिन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए।खालसा पंथ की स्थापना
गोबिन्द सिंह जी को खालसा पंथ की स्थापना करने का श्रेय जाता है। उन्होंने बैसाखी के दिन इस पंथ की स्थापना की। सन् 1699 में बैसाखी के दिन खालसा जो की सिख धर्म के विधिवत दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामुहिक रूप है उसका निर्माण किया था। गुरु गोबिन्द राय जी ने एक सिख समुदाय की सभा में उन्होने सभी आये लोगों से पूछा – “कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है” ? उसी समय एक व्यक्ति राजी हो गया और गुरु गोबिन्द जी के साथ एक तम्बू में चला गया और कुछ देर बाद गुरु गोबिन्द जी अकेले वापस आये और उनके हाथ में एक तलवार थी जिस पर खून लगा हुआ था। फिर गुरु गोबिन्द जी ने यही सवाल पूछा और एक और व्यक्ति राजी हो गया और तम्बू में चला गया और फिर गोबिन्द जी अकेले आये और खुनी तलवार हाथ में थी। लगातार ऐसे ही पांचवा व्यक्ति जब उनके साथ तम्बू में चला गया और कुछ देर बाद गुरु गोबिन्द जी उन सभी जीवित लोगों के साथ वापस लौटे और बताया कि वो अपने शिष्यों की परीक्षा ले रहे थे। अन्दर से जो खून बाहर आ रहा था वो जानवर का था। लोगो के मन से भय मिटाने के लिए ऐसा करना जरुरी थी। उन्होंने उन पांच शिष्य़ों को पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया फिर गुरु गोबिन्द जी एक लोहे का कटोरा लिया और उसमें पानी और चीनी मिला कर दुधारी तलवार से घोल कर अमृत का नाम दिया| और उन पांच व्यक्तियों के बाद खुद छठवां खालसा का नाम दिया गया जिसके बाद उनका नाम गुरु गोबिन्द राय का नाम गुरु गोबिन्द सिंह रख दिया गया। उन्होंने पांच चीजो का महत्व बताया और समझाया – केश, कंघा, कडा, किरपान, क्च्चेरा| केश : जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे। कंघा : केशों को साफ़ करने के लिए। कच्छा : स्फूर्ति के लिए। कड़ा : नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए एवं कृपाण : आत्मरक्षा के लिए। औरंगजेब के राज में 27 दिसम्बर 1704 को जोरावतसिंह व् फ़तेहसिंह जी (छोटे साहिबजादे) को दीवारों में चुनवा दीया गया| जब ये बात गुरूजी को पता चली तो उन्होंने औरंगजेब को जफरनामा (जित की चिट्टी) लिखी की औरंगजेब तेरा साम्राज्य खत्म करने के लिए खालसा तैयार हो गए हैं। 8 मई 1705 में “मुक्तसर” नामक जगह पर मुगलों से बहुत भयानक युद्ध हुआ था और गुरु गोबिन्द जी की जित हुई थी। वजीत खान गुरु जी को मारना चाहता था और वो कामयाब भी हुए उन्होंने 07 अक्टूबर 1708 में गुरू गोबिन्द सिंह जी को नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गाये। एक हत्यारे से युद्ध करते समय गुरु गोबिन्द सिंह जी के सीने में दिल के उपर एक गहरी चोट लग गयी थी जिसके कारण उनकी मृत्यु करीब 42 वर्ष की आयु में हो गयी थी जिस वजह से गुरु गोबिंद सिंह जी ने 7 अक्टूबर 1708 में महाराष्ट्र के नांदेड़ में अपना शरीर छोड़ा।गुरु गोबिंद सिंह की शिक्षा एवं विशेषताएं
अपने आध्यात्मिक और सैन्य नेतृत्व के अलावा, गुरु गोबिंद सिंह एक प्रतिभाशाली बौद्धिक व्यक्ति और कवि थे। वह कई शक्तिशाली आध्यात्मिक रचनाओं को लिखने के लिए प्रेरित थे जिन्होंने लोगों में मार्शल भावना को प्रेरित किया। उन्होंने अपने लेखों को सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में शामिल नहीं किया, उनके लेखन को अलग-अलग मात्रा में एकत्रित किया गया है, जिसे दशम ग्रंथ कहा जाता है। गुरु गोबिंद सिंह युद्ध कला के साथ साथ लेखन कला के भी धनी थे। उन्होंने 'जप साहिब' से लेकर तमाम ग्रंथों में गुरु की अराधना की बेहतरीन रचनाएं लिखीं। संगीत की द्रष्टि से ये सभी रचनाएं बहुत ही शानदार हैं। गुरु गोबिंद सिंह ने समाज को कहा कि अपनी जीविका ईमानदारी पूर्वक काम करते हुए चलाएं, गुरुबानी को कंठस्थ कर लें, अपनी कमाई का दसवां हिस्सा दान में दे दें, दुश्मन से भिड़ने पर पहले साम, दाम, दंड और भेद का सहारा लें, और अंत में ही आमने-सामने के युद्ध में पड़ें, काम में खूब मेहनत करें और काम को लेकर कोताही न बरतें। किसी भी तरह के नशे और तंबाकू का सेवन न करने का उन्होनें आदेश दिया। उन्हों ने किसी की चुगली-निंदा से बचें और किसी से ईर्ष्या करने के बजाय मेहनत करने पर बल दिया, किसी भी विदेशी नागरिक, दुखी व्यक्ति, विकलांग व जरूरतमंद शख्स की मदद करने का आह्वान किया। गुरु गोबिंद सिंह जी काव्य रचनाकार होने के साथ साथ संगीत के भी पारखी थे। कई वाद्य यंत्रों में उनकी इतनी अधिक रुचि थी कि उन्होंने अपने लिए खासतौर पर कुछ नए और अनोखे वाद्य यंत्रों का अविष्कार कर डाला था। गुरु गोबिंद सिंह द्वारा इजाद किए गए 'टॉस' और 'दिलरुबा' वाद्य यंत्र आज भी संगीत के क्षेत्र में जाने जाते हैं। गुरु गोबिंद सिंह जी को सर्वांश दानी कहा जाता है। शासकों द्वारा आम लोगों पर किए जाने वाले अत्याचार और शोषण के खिलाफ लड़ाई में उन्होंने अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। अपने पिता, मां और अपने चारों बेटों को उन्होंने खालसा के नाम पर कुर्बान कर दिया। गुरु गोबिंद सिंह जी ने सिक्ख धर्म और खालसा पंथ के धार्मिक कथ्यों और ग्रंथ को नाम दिया 'गुरु ग्रंथ साहिब'। सिक्खों का यह सबसे पवित्र ग्रंथ ही इस धर्म का प्रमुख प्रतीक है।To read this article in English Click here