महात्मा गांधी ने रामकृष्ण परमहंस को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था कि-
"श्री रामकृष्ण की जिंदगी की कहानी धर्म की कहानी है। उनका जीवन हमें ईश्वर को आमने-सामने देखने में सक्षम बनाता है। श्री रामकृष्ण ईश्वरियता की एक जीवित छवि थे। उनकी कहानियां केवल एक की सीख से नहीं बल्कि जीवन के किताब की पृष्ठभूमि से हैं।"
रामकृष्ण का जीवन परिचय
रामकृष्ण परमहंस का जन्म बंगाल के हुगली जिले के कामारपुकुर नामक गांव में 18 फरवरी 1836 ई। को एक निर्धन निष्ठावान ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके जन्म पर ही प्रसिद्ध ज्योतिषियों ने बालक रामकृष्ण के महान भविष्य की घोषणा की। इनकी माता चन्द्रा देवी तथा पिता क्षुदिराम थे। रामकृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार माना जाता है। इनके जन्म से पूर्व उनके माता-पिता ने सपना देखा था कि भगवान स्वंय उनका पुत्र बनने की बात कह रहे हैं। जिससे वह अत्यन्त प्रसन्न हुए थे। रामकृष्ण को बचपन में गदाधर नाम से पुकारा जाता था। पांच वर्ष की उम्र में ही वह अद्भुत प्रतिभा और स्मरणशक्ति का परिचय देने लगे। अपने पूर्वजों के नाम व देवी-देवताओं की स्तुतियाँ, रामायण, महाभारत की कथायें इन्हें कंठस्थ हो गई थीं। सन 1843 में इनके पिता का देहांत हो गया तो परिवार का पूरा भार इनके बड़े भाई रामकुमार पर आ पड़ा था। एक घटना के अनुसार जब रामकृष्ण जब नौ वर्ष के हुए तो इनके यज्ञोपवीत संस्कार का समय निकट आया। ब्राह्मण परिवार की यह परम्परा थी कि नवदिक्षित को इस संस्कार के पश्चात अपने किसी सम्बंधी या किसी ब्राह्मण से पहली भिक्षा प्राप्त करनी होती थी, किन्तु एक लुहारिन ने जिसने रामकृष्ण की जन्म से ही परिचर्या की थी, बहुत पहले ही उनसे प्रार्थना कर रखी थी कि वह अपनी पहली भिक्षा उसके पास से प्राप्त करे। यज्ञोपवीत के पश्चात घर वालों के लगातार विरोध के बावजूद इन्होंने ब्राह्मण परिवार की चिर-प्रचलित प्रथा का उल्लंघन कर अपना वचन पूरा किया और अपनी पहली भिक्षा उस स्त्री से प्राप्त की। यह घटना सामान्य न होकर भी कोई महत्तवहीन नहीं है। सत्य के प्रति प्रेम तथा इतनी कम उम्र में सामाजिक प्रथा से इस प्रकार ऊपर उठ जाना रामकृष्ण की अव्यक्त आध्यात्मिक क्षमता और दूरदर्शिता को कुछ कम प्रकट नहीं करता। रामकृष्ण का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। ऐसा करने के कारण उनके बड़े भाई उन्हें अपने साथ कलकत्ता ले गए और अपने पास दक्षिणेश्वर में रख लिया। रामकृष्ण दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में मां काली को सजाने का काम करन लगे। धीरे-धीरे वह वहां के पुरोहित बन गए और अपना सारा ध्यान मां काली की अराधना में लगाने लगे। वो समाज से विरक्त होने लगे तब इनके भाई और माता ने इनका विवाह कराने का सुनिश्चित किया। सन् 1858 में इनका विवाह शारदा देवी नामक पाँच वर्षीय कन्या के साथ सम्पन्न हुआ। जब शारदा देवी ने अठारहा वर्ष की हुईं तब श्री रामकृष्ण ने दक्षिणेश्वर की पुण्यपीठ में अपने कमरे में उनकी षोड़शी देवी के रूप में यथोपचार आराधना की। यही शारदा देवी रामकृष्ण संघ में माताजी के नाम से परिचित हैं।रामकृष्ण की ज्ञान प्राप्ति
रामकृष्ण के जीवन में अनेक गुरु आये पर अन्तिम गुरुओं का उनके जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा। गंगा के तट पर दक्षिणेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर में रहकर रामकृष्ण माँ काली की पूजा किया करते थे। गंगा नदी के दूसरे किनारे रहने वाली भैरवी को अनुभूति हुई कि एक महान संस्कारी व्यक्ति रामकृष्ण को उसकी दीक्षा की आवश्यकता है। गंगा को तैर के पार कर वो रामकृष्ण के पास आयीं तथा उन्हें कापालिक दीक्षा लेने को कहा। रामकृष्ण तैयार हो गये तथा भैरवी से दीक्षा ग्रहण की। भैरवी द्वारा बतायी पद्धति से लगातार साधना करते रहे तथा मात्र तीन दिनों में ही सम्पूर्ण क्रिया में निपुण हो गये। रामकृष्ण के अन्तिम गुरु थे श्री तोतापुरी जो सिद्ध योगी, तांत्रिक तथा हठयोगी थे। वे रामकृष्ण के पास आये तथा उन्हें दीक्षा दी। रामकृष्ण को दीक्षा दी गई परमशिव के निराकार रूप के साथ पूर्ण संयोग की, पर आजीवन तो उन्होंने माँ काली की आराधना की थी। वे जब भी ध्यान करते तो माँ काली उनके ध्यान में आ जातीं और वे भावविभोर हो जाते। ऐसा करते देख लोग उन्हें पागल कहने लगे थे। लेकिन इसके बाद भी रामकृष्ण ने इस्लाम, बौद्ध, ईसाई, सिख धर्मों की बकायदा विधिवत रूप से शिक्षा ग्रहण कर साधनायें की। ब्रह्म समाज के सर्वश्रेष्ठ नेता केशवचंद्र सेन, पंडित ईश्वरचंद विद्यासागर, बंकिमचंद्र चटर्जी, माइकेल मधुसूदन दत्त, कृष्णदास पाल, अश्विनी कुमार दत्त से रामकृष्ण घनिष्ठ रूप से परिचित थे। इनके प्रमुख शिष्यों में स्वामी विवेकानन्द, दुर्गाचरण नाग, स्वामी अद्भुतानंद, स्वामी ब्रह्मानंदन, स्वामी अद्यतानन्द, स्वामी शिवानन्द, स्वामी प्रेमानन्द, स्वामी योगानन्द थे। श्री रामकृष्ण के जीवन के अन्तिम वर्ष कारुण रस से भरे थे। रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य विवेकानन्द कुछ समय हिमालय के किसी एकान्त स्थान पर तपस्या करना चाहते थे। यही आज्ञा लेने जब वे गुरु के पास गये तो रामकृष्ण ने कहा- चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम हिमालय की किसी गुफा में समाधि के आनन्द में निमग्न रहो। क्या तुम्हारी आत्मा स्वीकारेगी? इससे विवेकानन्द दरिद्र नारायण की सेवा में लग गये। रामकृष्ण महान योगी, उच्चकोटि के साधक व विचारक थे। सेवा पथ को ईश्वरीय, प्रशस्त मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। सेवा से समाज की सुरक्षा चाहते थे। गले में सूजन को जब डाक्टरों ने कैंसर बताकर समाधि लेने और वार्तालाप से मना किया तब भी वे नहीं माने। इलाज करान के बाद भी गले के कैंसर के कारण 16 अगस्त, 1886 सोमवार ब्रह्ममुहूर्त में उन्होंने अपने देह को त्याग दिया और चिरनिद्रा में मग्न हो गए। रामकृष्ण छोटी कहानियो के माध्यम से लोगो को शिक्षा देते थे। कलकत्ता के बुद्धिजीवियों पर उनके विचारो ने ज़बरदस्त प्रभाव छोड़ा था। हलांकि उनकी शिक्षाएं आधुनिकता और राष्ट्र के आज़ादी के बारे मंग नहीं थी। उनके आध्यात्मिक आंदोलन ने परोक्ष रूप से देश में राष्ट्रवाद की भावना बढ़ने का काम किया क्योंकि उनकी शिक्षा जातिवाद एवं धार्मिक पक्षपात को नकारती हैं।To read this article in English Click here