दुर्गा मां सब दुष्टों का संहार करने वाली है। मान्यता है कि मां अपने भक्तों का बाल भी बांका नहीं होने देती।मां के एक हाथ में तलवार और दूसरे में कमल का फूल है। रक्तांबर वस्त्र, सिर पर मुकुट, मस्तक पर श्वेत रंग का अर्धचंद्र तिलक और गले में मणियों-मोतियों का हार हैं। शेर हमेशा माता के साथ रहता है। बंगाली दुर्गा पूजा में हर पंडाल में मां दुर्गा की महिषासुर वध करने वाली ही प्रतिमा लगाई जाती है। पंडाल में मां के चार पुत्र-पुत्रियां, कार्तिक, गणेश, सरस्वती और लक्ष्मी चार मुख्य बिंदुओं को दर्शाते हैं जो कि सुरक्षा देने वाला, शुरूआत करने वाला, ज्ञान देने वाली और शक्ति देने वाले हैं।
भगवान राम जब रावण से युद्ध करने लंगा जा रहे थे तो उन्होंने सागर किनारे बैठ कर मां दुर्गा की पूजा की थी। मां दुर्गा ने उनकी पूजा से खुश होकर उन्हों विजय होने का वरदान दिया था। जितने दिन भगवान ने मां दुर्गा की अराधना की थी उसे अकाल बोधन कहा जाता है। ये भी मान्यता है कि भगवान शिव ने मां दुर्गा को साल में 9 दिन अपनी मां के घर जाने की आज्ञा दी हुई है।
इसलिये दुर्गा के अपनी मां के घर जाने के दिन से ये त्योहार शुरू होता है और विजयादशमी के दिन खत्म होता है जब मां वापस कैलाश पर्वत लौटती हैं।
प्रतिमा के लिये वेश्यालय की मिट्टी जरूरी
दुर्गा मां की जो भी मूर्ति पंडाल में रखी जाती है उसको बनाने के लिये उसमें कुछ चीजें जरूर होनी चाहिए, जैसे कि गोबर, गौमूत्र और निषिद्धो पाली मिट्टी। निषिद्धो पाली मिट्टी होती है वेश्यालय के दरवाजे के बाहर की मिट्टी। अगर मूर्ति में यहां कि मिट्टी नहीं होगी तो उस मूर्ति को मां स्वीकार ही नहीं करती। इसके पीछे भी कई कहानियां हैं। माना जाता है कि एक बार एक वेश्या मां की बहुत बड़ी भक्त थीं। से तिरस्कार से बचाने के लिए मां ने स्वंय आदेश देकर उसके आंगन की मिट्टी से अपनी मूर्ति स्थापित करवाने की परंपरा शुरू हुई। ये भी कहा जाता है कि अगर औरत से कोई गलती होती है तो उसके लिये समाज जिम्मेदार है ना कि वो। ऐसे में उनके घर कि मिट्टी का प्रयोग कर उन्हें सम्मान देना चाहिए।
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