
इतिहास
1380 ईस्वी पूर्व जब ईरान में धर्म-परिवर्तन की लहर चली तो कई पारसियों ने अपना धर्म परिवर्तित कर लिया, लेकिन जिन्हें यह मंजूर नहीं था वे देश छोड़कर भारत आ गए। यहां आकर उन्होंने अपने धर्म के संस्कारों को आज तक सहेजे रखा है। सबसे खास बात ये कि समाज के लोग धर्म-परिवर्तन के खिलाफ होते हैं।अगर पारसी समाज की लड़की किसी दूसरे धर्म में शादी कर ले, तो उसे धर्म में रखा जा सकता है, लेकिन उसके पति और बच्चों को धर्म में शामिल नहीं किया जाता है। ठीक इसी तरह लड़कों के साथ भी होता है। लड़का भी यदि किसी दूसरे समुदाय में शादी करता है तो उसे और उसके बच्चों को धर्म से जुड़ने की छूट है, लेकिन उसकी पत्नी को नहीं। पारसी समुदाय धर्म-परिवर्तन पर विश्वास नहीं रखता। यह सही है कि शहरों और गांवों में इस समाज के कम लोग ही रह गए हैं खासकर युवा वर्ग ने करियर और पढ़ाई के सिलसिले में शहर छोड़कर बड़े शहरों की ओर रुख कर लिया है, लेकिन हां, कुछ युवा ऐसे भी हैं, जो अपने पैरेंट्स की केयर करने आज भी शहर में रह रहे हैं। भगवान प्रौफेट जरस्थ्रु का जन्मदिवस 24 अगस्त को मनाया जाता है। नववर्ष पर खास कार्यक्रम नहीं हो पाते, इस वजह से 24 अगस्त को पूजन और अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
यह दिन भी हमारे पर्वों में सबसे खास होता है। उनके नाम के कारण ही हमें जरस्थ्रुटी कहा जाता है। पारसियों के लिए यह दिन सबसे बड़ा होता है। इस अवसर पर समाज के सभी लोग पारसी धर्मशाला में इकट्ठा होकर पूजन करते हैं। समाज में वैसे तो कई खास मौके होते हैं, जब सब आपस में मिलकर पूजन करने के साथ खुशियां भी बांटते हैं, लेकिन मुख्यतः 3 मौके साल में सबसे खास हैं। एक खौरदाद साल, प्रौफेट जरस्थ्रु का जन्मदिवस और तीसरा 31 मार्च। इराक से कुछ सालों पहले आए अनुयायी 31 मार्च को भी नववर्ष मनाते हैं। नववर्ष पारसी समुदाय में बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है। धर्म में इसे खौरदाद साल के नाम से जाना जाता है। पारसियों में 1 वर्ष 360 दिन का और शेष 5 दिन गाथा के लिए होते हैं। गाथा यानी अपने पूर्वजों को याद करने का दिन। साल खत्म होने के ठीक 5 दिन पहले से इसे मनाया जाता है। इन दिनों में समाज का हर व्यक्ति अपने पूर्वजों की आत्मशांति के लिए पूजन करता है। इसका भी एक खास तरीका है। रात 3.30 बजे से खास पूजा-अर्चना होती है। धर्म के लोग चांदी या स्टील के पात्र में फूल रखकर अपने पूर्वजों को याद करते हैं।
कैसे मनाते है नवरोज़ का त्यौहार
माना जाता है कि आज से लगभग 3 हजार साल पहले नवरोज मनाने की परंपरा आरंभ हुई. पूर्व शाह जमशेदजी ने पारसी धर्म में नवरोज मनाने की शुरुआत की थी। यह त्योहार पहली बार राजा जमशेद द्वारा मनाया गया था जिसके बाद त्यौहार का नाम रखा गया था। 'नव' का अर्थ है 'नया' और 'रोज़' का अर्थ 'दिन' है। अर्थात नवरोज का अर्थ है नया दिन। नवरोज का दिन वर्णाल विषुव के साथ होता है जिसका अर्थ है बराबर दिन और बराबर रात। यह दिन सर्दी से गर्मियों में संक्रमण को भी चिह्नित करता है। राजा जमशेद के नाम पर नामित, जमशेद-ए-नवराज़ पारसी द्वारा मनाए जाने वाले एक मूर्तिपूजक पशुधन त्यौहार है जो बहुत सभी महमानों के साथ साथ मनाया जाता है।नवरोज का त्यौहार बड़े पैमाने पर मनाया जाता है। हालांकि पारसी पश्चिमी हैं। लेकिन इनके त्योहारों का जश्न मनाने का तरीका काफी पारंपरिक होता है। पारसी लोग इस दिन नए कपड़े पहनते हैं। जमशेद-ए-नवराज़ दोस्ती, खुशी और सद्भाव की भावना का प्रतीक है। वे अपने घरों को सितारों, तितलियों, पक्षियों और मछली जैसे शुभ प्रतीकों से सजाते हैं। वे गुलाब के पानी को घरों में छिड़क कर एवं चावल का टीका मेहमानों को लगाकर उनका स्वागत करते हैं। पारसी मंदिर अगियारी में विशेष प्रार्थनाएं होती हैं. इन प्रार्थनाओं में लोग पिछले साल उन्होंंने जो कुछ भी पाया, उसके लिए ईश्वनर के प्रति आभार व्यइक्तओ करते हैं. मंदिर में प्रार्थना समाप्तक होने के बाद समुदाय के लोग एक-दूसरे को नववर्ष की बधाई देते हैं. पारसी लोग अपने घर की सीढ़ियों पर रंगोली बनाते हैं. चंदन की लकड़ियों के टुकड़े घर में रखे जाते हैं जिससे उसकी सुगंध हर ओर फैले. वे मानते हैं कि ऐसा करने से हवा शुद्ध होती है. नवरोज के पूरे दिन, घर में मेहमानों के आने-जाने का सिलसिला चलता है. सभी एक-दूसरे को बधाईयां देते हैं. पारसी लोग इस दिन विभिन्न तरह के भोजन बनाते हैं। भोजन उनके उत्सव का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस समय के दौरान सबसे पारंपरिक पेय दूध और स्वादयुक्त गुलाब जल से तैयार करके बनाते हैं। नाश्ते के लिए 'रावो' बनाते हैं जो सूजी और दूध-चीनी से तैयार किया जाता है।
नवरोज पर पारसी के दिन के खाने में पुलाव शामिल है। लोगों के लिए गठों की एक प्रति, एक जला दीपक, जीवित मछली युक्त पानी का एक कटोरा, एक अफगान, उथले गेहूं या समृद्धि के लिए सेम के साथ एक उथली मिट्टी के बरतन प्लेट, धन के लिए चांदी का सिक्का, रंग के लिए फूल , उत्पादकता के लिए अंडे पेंट, और मेज पर मिठास और खुशी के लिए कटोरे में मिठाई और गुलाब जल इत्यादि रखते हैं। लोग जमशेद-ए-नवराज़ के कारण उपहारों का आदान-प्रदान करते हैं। पारसी त्यौहार लोगों को सभी वर्गों से एक साथ लाता है जो समानता का संकेत है। पारसी नववर्ष पारसी समुदाय के लिए आस्था और उत्साह का संगम है।
पारसी त्यौहार नवजोत
ये धर्म की पर्यावरणीय चेतना को मूर्त रूप देने वाले समारोह हैं। ये पृथ्वी के चतुर्थांशों को आहुतियों से लेकर व्यापक 'यस्ना' समारोह तक, मनुष्य और ब्रह्मांड के बीच अंतर्संबंध के संपूर्णतावादी दृष्टिकोण को प्रदर्शित करते हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण समारोह 'नवजोत' (धर्म में दीक्षा) है। पारसी माता-पिता से पैदा होने के बावजूद बच्चे को पारसी बनाने के लिए स्वयं धर्म चुनना और इस पर क़ायम रहना ज़रूरी हैं। प्राचीन ईरान की तरह आज भी बच्चे के 15 वर्ष का होने पर नवजोत आयोजित किया जाता है। नवजोत समारोह में बच्चे को पवित्र क़मीज़ 'सुद्रेह' और पवित्र करधनी 'कुस्ति' से पहनाए जाते हैं। कमीज़ को 'वोहु मानिक' वस्त्र, यानी अच्छे मन का वस्त्र कहा जाता है। कुस्ति को अच्छी ऊन के 72 धागों से बुनकर बनाया जाता है, जो यस्ना के 72 अध्यायों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सिरे पर के फुंदने ऊन के 24 धागों से बुने जाते हैं। ये विस्पेरद के 24 अध्यायों के प्रतीक हैं। कुस्ति उत्तम धर्म का प्रतीक है। सुद्रेह धर्म के सफ़ेद रंग का होता है और सूत का बना होता है।तस्मे वाला सुद्रेह 19वीं सदी में प्रचलन में आया था। इसकी विशेषता अंग्रेज़ी के 'वी' आकार के गले के नीचे स्थित छोटा 'किस्सेह-इ-कर्फ़ेह' या 'गरेबां' है, जिसमें पीछे फांक होती है। गरेबां पारसियों को याद दिलाता है कि अहुर मज़्दा की अच्छाई की तुलना में मानवीय प्रयास अत्यंत छोटे हैं। गरेबां को अच्छे कर्मों से भरा जाना चाहिए और हर रात अहुर मज़्दा की कृपा के लिए उनके सामने प्रस्तुत किया जाना चाहिए। गले के पीछे एक और छोटी ज़ेब होती है, जो 'गर्द्यू' (गिर्दो) कहलाती है। प्रतीकात्मक रूप से इसमें धारक की उपलब्धियां होती हैं। 'तिरि' कहलाने वाले तीन धागे सुद्रेह के दाएं हाथ के निचले कोने पर त्रिकोण में सिले होते हैं, जो धर्म के आदर्श वाक्य- "अच्छे विचार, अच्छे शब्द और अच्छे कार्य" का प्रतिनिधित्व करते है। कुस्ति को विशेष प्रार्थना के साथ कमर पर बांधते हैं, जिसमें गाथाओं के दो भजन शामिल हैं। सुद्रेह और कुस्ति को जीवन भर पहनना होता है। मृत्यु के समय भी शव के लिए नया सुद्रेह उपलब्ध न हो पाने की स्थिति में पुराने फटे हुए सुद्रेह में लपेटा जाता है।To read this Article in English Click here