कार्तिकाई दीपम भारत के दक्षिणी क्षेत्र, खासकर तमिलनाडु में मनाया जाने वाला त्योहार है | कार्तिकाई दीपम दक्षिणभारत में मनाया जाने वाला सबसे पुराना त्योहार है | तमिलनाडु में इसे "दीपों का त्योहार" भी कहा जाता है | तमिल पंचांग के अनुसार यह त्योहार कार्तिकाई माह में ही आता है| पश्चिमी पंचांग के अनुसार यह माह नवम्बर-दिसम्बर का होता है | मान्यता है कि भगवान मुरगन कोई और नहीं बल्कि भगवान शिव से निकलने वाले दिव्य प्रकाश का एक रूप है|

पौराणिक कथा

कार्तिकाई दीपमकहा जाता है कि एक बार स्वर्ग मे निवास करने वाले देवताओं ने भगवान शिव के संपूर्ण दर्शन की मंशा से भरपूर प्रयास किया | इस प्रक्रिया के दौरान देवताओं के इस प्रयास में भगवान ब्रहमा और भगवान विष्णु भी शामिल हो गये| भगवान ब्रहमा ने हंस का रूप धारण कर लिया और भगवान विष्णु ने सुअर का रूप धर लिया लेकिन धरती,आकाश,पाताल और सभी लोकों में विस्तृत खोज के बाद भगवान शिव ना मिल सकें |

भगवान ब्रहमा और भगवान विष्णु की दशा देखकर भगवान शिव ख़ुद दोनों के पास आए और बोले कि मैं अपना संपूर्ण रूप धारण कर रहा हूँ, आप दोनों मेरे शीश और मेरे पैर के अंतिम छोर की खोज कर लीजिए, आपको मेरा संपूर्ण दर्शन मिल जाएगा| भगवान शिव ने यह बात कहकर तिरुवन्न्मलाई की पहड़ियों में जाकर एक विशालकाय ज्योति का रूप धारण कर लिया, जिसका कोई अंत नही था| इसीलिए इस त्योहार को "अन्नामलाई दीपम" भी कहा जाता है | हर वर्ष इस दिन तिरुवन्नामलाई पहाड़ी की चोटी पर लोग एक ज्योति जलाते है, इस मान्यता के साथ कि भगवान शिव द्वारा प्रज्जवलित ज्योति भी इस दिन सभी लोगों को दर्शन देगी | इस दिन दक्षिण भारत में एक और देव भगवान मुर्गन की भी पूजा की जाती है| मान्यताओं के अनुसार भगवान मुर्गन ने इसी दिन सरवन पौगई नाम की झील में छः बच्चों के रूप उत्पत्ति हुई थी | इस दिन भगवान मुर्गन की माँ माता पार्वती ने छः रूप धारण किया था, इसी कारण भगवान मुर्गन छः चेहरों के साथ जन्में थे | दक्षिण भारत में इस त्योहार को बहुत उल्लास के साथ मनाया जाता है |

कार्तिकाई दीपम पर्व की उत्पत्ति

इस पर्व को तमिलनाडु और दक्षिण भारत के कई क्षेत्र में सदियों से मनाया जा रहा है | यह पर्व इतना पुराना है कि दीवाली और नवरात्रि के त्योहारों से भी पहले इस पर्व को मनाया जाता था| इस बात के प्रमाण प्राचीन तमिल साहित्य जैसे "अहननुरु"(200 बी.सी.-300 ए.डी.), तोल्कप्पियम जो (2000-2500बी.सी.) पुराना है | जीवकचीन्तामणि जो, जैन समुदाय के कवि द्वारा लिखा गया है और सुप्रसिद्ध कवि अवैयय्यर ने अपने लिखें हुए साहित्यों में भी इसका उल्लेख किया है|

दीवाली और कार्तिकाई दीपम

दक्षिणभारत में इस त्योहार को दीवाली पर्व का विस्तार कहा जाता है | दीवाली के बाद से लोग, हर घर मे जलाएँ जाने वाले दीपों की संख्या दुगुनी करते जाते है और कार्तिकाई दीपम के दिन घर मे बहुत से दियों द्वारा रोशनी की जाती है | इस त्योहार में भी जैसे देश के बाक़ी हिस्सों मे दीवाली के पूर्व घर की सॉफ-सफाई की जाती है, उसी तरह इस पर्व पर भी की जाती है | यह त्योहार पूरे नौ दिन का होता है, जिसमे हर दिन घर को फूल-माला, दीपक और रंगोलियों से सजाया जाता है | इतनी रोशनी से पूरा क्षेत्र प्रकाशमान हो जाता है |

कार्तिकाई दीपम उत्सव

कार्तिकाई दीपम तमिलनाडु का सबसे प्रमुख त्योहार है | नौ दिनों तक चलने वाले इस पर्व मे प्रत्येक दिन का अपना एक अलग महत्व है| इस त्योहार के दौरान अरुणाचलेस्वरार मंदिर में कई तरह के अनुष्ठान आयोजित किया जाते है, जो तिरुवन्नामलाई की अन्नामाली पहाड़ी पर स्थित है |

इस मंदिर में इस त्योहार की शुरुआत ध्वज फेहरा कर की जाती है, जो पूरे नौ दिनों तक चलता है| त्योहार के दसवें दिन इस मंदिर में भरनी दीपम प्रातः जल्दी जलाया जाता है| श्रद्धालूँ इस दीप के दर्शन हेतु सुबह से आने लगते है | ऐसी मान्यता है कि भरनी दीपम मे जलने वाली ज्योति भगवान मुर्गन के रूप मे प्रकाशवान होती है | कहा जाता है कि इस दीए में लगभग 2000 लीटर घी एकत्रित करने की क्षमता है | इसकी उँचाई 5 से 5.5फीट के आसपास है| इस दीयें मे जलने वाली बाति 30 मीटर लंबे धागे से बनती है, जिसमे 2 किलो कपूर का इस्तेमाल होता है| कहते है कि जब यह ज्योति अपने पूर्ण आकार मे प्रज्जवलित होती है, तो यह 35 किलोमीटर की दूरी से दिखाई देती है |

संध्या के समय मंदिर की पॅंचमूर्ति मंडप तक लाई जाती है| इसके बाद इसका एक भव्य जुलूस निकाला जाता है, जिसमे पंचमूर्ति के लिए पाँच दीयें रखे जाते है | इसके बाद जुलूस मे एकत्रित समूची भीड़ एक साथ तेज़ आवाज़ में "अन्नामलैईक्कू आरोगरा" के नाम का विलाप करती है | यह विलाप देव आवाह्न का होता है और उस प्रकाश के माध्यम से देवदर्शन होते है | इस प्रकार यह उत्सव समाप्त हो जाता है |

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