कुंभ क्या है?
कलश को कुंभ कहा जाता है। कुंभ का अर्थ होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा है। देवता-असुर जब अमृत कलश को एक दूसरे से छीन रह थे तब उसकी कुछ बूंदें धरती की तीन नदियों में गिरी थीं। जहां जब ये बूंदें गिरी थी उस स्थान पर तब कुंभ का आयोजन होता है। उन तीन नदियों के नाम है:- गंगा, गोदावरी और क्षिप्रा है। कुंभ के ही एक भाग को अर्धकुंभ भी कहा जाता है। अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। पौराणिक ग्रंथों में भी कुंभ एवं अर्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है। कुंभ पर्व हर 3 साल के अंतराल पर हरिद्वार से शुरू होता है। हरिद्वार के बाद कुंभ पर्व प्रयाग नासिक और उज्जैन में मनाया जाता है। प्रयाग और हरिद्वार में मनाए जानें वाले कुंभ पर्व में एवं प्रयाग और नासिक में मनाए जाने वाले कुंभ पर्व के बीच में 3 सालों का अंतर होता है। यहां माघ मेला संगम पर आयोजित एक वार्षिक समारोह है। कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी। मंथन में निकले अमृत का कलश हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन और नासिक के स्थानों पर ही गिरा था, इसीलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता आया है। 12 साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है। जबकि कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। परन्तु प्रमाणित तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन 617-647 ई। के समय से प्राप्त होते हैं। बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की।इलाहाबाद कुंभ मेले का महत्व
श्रद्धालुओं का यह मत है कि कुंभ के स्नान से मानव के दोष तो मिटते ही हैं, संसार की विपत्तियों का भी नाश होता है। लेकिन श्रद्धालुओं के इस आस्थापूर्ण मत से इतर यदि तार्किक दृष्टि से विचार करें तो भी यही स्पष्ट होता है कि कुम्भ पर्वों का उद्देश्य केवल आस्थापूर्ति और लोकरंजन ही नहीं है, बल्कि इसमे लोककल्याण का भाव भी निहित है। पालक-पोषक होने के कारण और कुछ पौराणिक आस्थाओं के कारण भी, भारत में पुरातन काल से ही नदियों को मां का स्थान प्राप्त रहा है। ऐसे में, बहुत से विद्वानों का ऐसा मानना है कि प्राचीनकाल से निरंतर आयोजित हो रहे इन कुंभ पर्वों का एक प्रमुख उद्देश्य नदी-संरक्षण भी है।इलाहाबाद को तीर्थराज प्रयाग भी कहा जाता है क्योंकि यह सभी तीर्थस्थोलों का राजा है। ऐसी मान्यता है कि इलाहाबाद की इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्री विष्णु स्वयं हैं और वे यहाँ माधव रूप में विराजमान हैं। भगवान के यहाँ बारह स्वरूप विद्यमान हैं। पंचकोसी परिक्रमा जिन्हें द्वादश माधव कहा जाता है। भारत में महाकुंभ धार्मिक स्तर पर बेहद पवित्र और महत्वपूर्ण आयोजन है। इसमें लाखों लोग शिरकत करते हैं। महीने भर चलने वाले इस आयोजन में तीर्थयात्रियों के ठहरने के लिए टेंट लगा कर एक छोटी सी नगरी अलग से बसाई जाती है। यहां सुख-सुविधा की सारी चीजें जुटाई जाती हैं। यह आयोजन प्रशासन, स्थानीय प्राधिकरणों और पुलिस की मदद से आयोजित किया जाता है। इस मेले में दूर-दूर के जंगलों, पहाड़ों और कंदराओं से साधु-संत आते हैं। कुंभयोग की गणना कर स्नान का शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। स्नान के पहले मुहूर्त में नागा साधु स्नान करते हैं। इन साधुओं के शरीर पर भभूत लिपटी रहती है, बाल लंबे होते हैं और यह मृगचर्म पहनते हैं। स्नान के लिए विभिन्न नागा साधुओं के अखाड़े बेहद भव्य तरीके से जुलूस की शक्ल में संगम तट पर पहुंचते हैं। यहां कुंभ के अवसर पर एक से बढ़कर एक साधु-महात्मा आते हैं जो अपने आगमन से इस धरती को और पवित्र करते हैं। कुंभ मेले में लाखों की संख्या में दर्शक एवं यात्रीगण इनका दर्शन करते हैं और इनके स्नान करने पर ही स्वयं स्नान करते हैं। इन साधु-संतों व उनके अखाड़ों की भी अपनी-अपनी विशिष्ट परंपराएँ व रीति-रिवाज हैं। इलाहाबाद चार पवित्र शहरों में से एक है जहां महा कुंभ मेला हर 12 वर्षों के बाद मनाया जाता है। प्रयाग में कुंभ मेला संगम में मनाया जाता है - पवित्र नदियों का संगम गंगा, यमुना और सरस्वती सबसे बड़ा है सबसे पवित्र माना जाता है। महा कुंभ के छः वर्षों के बाद प्रयाग में आयोजित अर्ध कुंभ मेला, पवित्र स्नान करने के लिए लाखों लोगों को आकर्षित करता है। माघ कुंभ प्रयाग में संगम में मनाए जाने वाले एक वार्षिक मेला हैं।इलाहाबद (प्रयाग) अवलोकन
प्र' का अर्थ होता है बहुत बड़ा तथा 'याग' का अर्थ होता है यज्ञ। ‘प्रकृष्टो यज्ञो अभूद्यत्र तदेव प्रयागः'- इस प्रकार इसका नाम ‘प्रयाग’ पड़ा। दूसरा वह स्थान जहां बहुत से यज्ञ हुए हों। इलाहाबाद उत्तर भारत के उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग में स्थित एक नगर एवं इलाहाबाद जिले का प्रशासनिक मुख्यालय है। इसका प्राचीन नाम प्रयाग है। इसे 'तीर्थराज' (तीर्थों का राजा) भी कहते हैं। इलाहाबाद भारत का दूसरा प्राचीनतम बसा नगर है। हिन्दू मान्यता अनुसार, यहां सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने सृष्टि कार्य पूर्ण होने के बाद प्रथम यज्ञ किया था। इसी प्रथम यज्ञ के प्र और याग अर्थात यज्ञ से मिलकर प्रयाग बना और उस स्थान का नाम प्रयाग पड़ा जहाँ भगवान श्री ब्रम्हा जी ने सृष्टि का सबसे पहला यज्ञ सम्पन्न किया था। इस पावन नगरी के अधिष्ठाता भगवान श्री विष्णु स्वयं हैं और वे यहाँ माधव रूप में विराजमान हैं। भगवान के यहाँ बारह स्वरूप विध्यमान हैं। जिन्हें द्वादश माधव कहा जाता है। सबसे बड़े हिन्दू सम्मेलन महाकुंभ की चार स्थलियों में से एक है, शेष तीन हरिद्वार, उज्जैन एवं नासिक हैं। हिन्दू धर्मग्रन्थों में वर्णित प्रयाग स्थल पवित्रतम नदी गंगा और यमुना के संगमपर स्थित है। यहीं सरस्वती नदी गुप्त रूप से संगम में मिलती है, अतः ये त्रिवेणी संगम कहलाता है, जहां प्रत्येक बारह वर्ष में कुंभ मेला लगता है। पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने यहां पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था। इस यज्ञ में वह स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान एवं भगवान शिव उस यज्ञ के देवता बने थे। तब अंत में तीनों देवताओं ने अपनी शक्ति पुंज के द्वारा पृथ्वी के पाप बोझ को हल्का करने के लिए एक 'वृक्ष' उत्पन्न किया। यह एक बरगद का वृक्ष था जिसे आज अक्षयवट के नाम से जाना जाता है। यह आज भी विद्यमान है। औरंगजेब ने इस वृक्ष को नष्ट करने के बहुत प्रयास किए। इसे खुदवाया, जलवाया, इसकी जड़ों में तेजाब तक डलवाया। किन्तु वर प्राप्त यह अक्षयवट आज भी विराजमान है। आज भी औरंगजेब के द्वारा जलाने के चिन्ह देखे जा सकते हैं। चीनी यात्री ह्वेन सांग ने इसकी विचित्रता से प्रभावित होकर अपने संस्मरण में इसका उल्लेख किया है। इस देवभूमि का प्राचीन नाम प्रयाग ही था, लेकिन जब मुस्लिम शासक अकबर यहां आया और उसने इस जगह के हिंदू महत्व को समझा, तो उसने इसका नाम 1583 में बदलकर इलाहाबाद रख दिया। अकबर ने हिंदू एवं मुस्लिम दोनों धर्मो को मिलाकर एक नया धर्म चलाया था जिसका नाम उसने 'दीनेइलाही' रखा। इस प्रकार 'इलाही' जहां पर 'आबाद' हुआ वह इलाहाबाद कहलाया। प्रयाग का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। जान पड़ता है जिस प्रकार सरस्वती नदी के तट पर प्राचीन काल में बहुत से यज्ञादि होते थे उसी प्रकार आगे चलकर गंगा-यमुना के संगम पर भी हुए थे। इसी लिये 'प्रयाग' नाम पड़ा। यह तीर्थ बहुत प्राचीन काल से प्रसिद्ध है और यहाँ के जल से प्राचीन राजाओं का अभिषेक होता था। इस बात का उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है। वन जाते समय श्री राम प्रयाग में भारद्वाज ऋषि के आश्रम पर होते हुए गए थे। प्रयाग बहुत दिनों तक कोशल राज्य के अंतर्गत था। अशोक आदि बौद्ध राजाओं के समय यहाँ बौद्धों के अनेक मठ और विहार थे। अशोक का स्तंभ अबतक किले के भीतर खड़ा है जिसमें समुद्रगुप्त की प्रशस्ति खुदी हुई है।कुंभ मेले की पौराणिक कथा
कुंभ मेले की पौराणिक कथा के अनुसार एक बार इन्द्र देवता ने महर्षि दुर्वासा को रास्ते में मिलने पर जब प्रणाम किया तो दुर्वासाजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी माला दी, लेकिन इन्द्र ने उस माला का आदर न कर अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर डाल दिया। जिसने माला को सूंड से घसीटकर पैरों से कुचल डाला। इस पर दुर्वासाजी ने क्रोधित होकर इन्द्र की ताकत खत्म करने का श्राप दे दिया। तब इंद्र अपनी ताकत हासिल करने के लिए भगवान ब्रह्मा और भगवान शिव से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें विष्णु भगवान की प्रार्थना करने की सलाह दी, तब भगवान विष्णु ने क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया। जिसके फलस्वरूप क्षीरसागर से पारिजात, ऐरावत हाथी, उश्चैश्रवा घोड़ा रम्भा कल्पबृक्ष शंख, गदा धनुष कौस्तुभमणि, चन्द्र मद कामधेनु और अमृत कलश लिए धन्वन्तरि निकलें। सबसे पहले मंथन में विष उत्पन्न हुआ जो कि भगवान् शिव द्वारा ग्रहण किया गया। जैसे ही मंथन से अमृत दिखाई पड़ा,तो देवता, शैतानों के गलत इरादे समझ गए, देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। समझौते के अनुसार उनका हिस्सा उनको नहीं दिया गया तब राक्षसों और देवताओं में 12 दिनों और 12 रातों तक युद्ध होता रहा। इस तरह लड़ते-लड़ते अमृत पात्र से अमृत चार अलग-अलग स्थानों पर गिर गया, जिन स्थानो पर अमृत गिरा, वो स्थान थे। इलाहाबाद, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। तब से, यह माना गया है कि इन स्थानों पर रहस्यमय शक्तियां हैं, और इसलिए इन स्थानों पर कुंभ मेला लगता है। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया। देवताओं के 12 दिन, मनुष्यों के 12 साल के बराबर हैं, इसलिए इन पवित्र स्थानों पर प्रत्येक 12 वर्षों के बाद कुंभ मेला लगता है। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है।
इलाहाबाद कैसे पहुंचे
हवाईजहाज द्वाराइलाहाबाद हवाई अड्डे के रूप में उपयोग किए जाने वाले बमराउली वायुसेना बेस शहर से सिर्फ 12 किमी दूर है। यहां से सीमित शहरों के लिए घरेलू उड़ानें उपलब्ध हैं। इलाहाबाद के अन्य दो निकटतम हवाई अड्डे वाराणसी (150 किलोमीटर) में लाल बहादुर शास्त्री हवाई अड्डा और लखनऊ में अमौसी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा (200 किलोमीटर) हैं। ये हवाई अड्डे घरेलू उड़ानों के माध्यम से सभी प्रमुख भारतीय शहरों से जुड़े हुए हैं।
रेल द्वारा
इलाहाबाद भारत के उत्तर मध्य रेलवे क्षेत्र की प्रमुख तिमाही है और यहां से सभी प्रमुख भारतीय शहरों के लिए ट्रेन उपलब्ध हैं। इलाहाबाद के माध्यम से गुजरने वाली सभी एक्सप्रेस और सुपर फास्ट ट्रेन इलाहाबाद स्टेशन पर रुकती हैं। आपको वांछित गंतव्य पर ले जाने के लिए स्टेशन के पास टैक्सी, रिक्शा और स्थानीय बसें उपलब्ध हैं।
सड़क मार्ग द्वारा
भारतीय मैदान के दिल में स्थित इलाहाबाद सड़क के माध्यम से अन्य शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। दिल्ली और कोलकाता को जोड़ने वाले एनएच -2 के साथ चार राष्ट्रीय राजमार्ग इलाहाबाद से गुजरते हैं, एनएच -27 इलाहाबाद को मध्य प्रदेश से जोड़ते हैं, एनएच -76 इलाहाबाद को राजस्थान से जोड़ते हैं और एनएच -96 एनएच -28 से जुड़ते हैं और इलाहाबाद और अयोध्या को जोड़ते हैं।
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