मानेकथरीका मेला उत्सव का महत्व
अश्विन एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ रौशनी है। यह शाम को आकाश में दिखाई देने वाला पहला सितारा माना जाता है। हिंदुओं के लिए सौर धार्मिक कैलेंडर में, अश्विन का महीना वर्षा ऋतु के समापन और शरद ऋतु के आगमन का संकेत होता है। जब सूर्य कन्या राशि से निकलकर सिंह राशि में प्रवेश करता है। गुजरात का यह मानेकथरीका मेला पूनम मेला आमतौर पर मध्य सितंबर से मध्य अक्टूबर के बीच मनाया जाता है। जो मॉनसून के समाप्त होने का जश्न मनाने का मौका देता है। मानेकथरीका मेला पुनम मेले के बारे में एक प्रसिद्ध धारणा यह है कि इस पूनम की रात को स्वाती नक्षत्र होता है जिसके दौरान बारिश की बूंदे पृथ्वी पर जब गिरती हैं तो वाह समुद्र के सीप के मुंह में जाती है जो मोती का रुप धारण कर लेती है। इस दिन की बारिश को मोतियों की बारिश कहा जाता है। इसलिए इस पूर्णिमा दिवस का नाम मानेकथरीका मेला पूर्णिमा रखा गया है जिसका अर्थ ऊपर वर्णित विशिष्ट ज्योतिषीय स्थितियों के तहत एक मोती का बारिश की बूंद के परिवर्तित होना। गुजरात में, मानसून के दौरान बारिश की अवधि के बाद, लोग मौसम में बदलाव की दिशा में अपनी खुशी प्रदर्शित करने के लिए मानेकथरीका मेला उत्सव मनाते हैं। इस दिन गुजरात के खेड़ा जिले के डाकोर गांव को रंगीन रोशनी के साथ सजाया जाता है और मानसून के बाद नए मौसम की शुरुआत को आमंत्रित करने के लिए सुगंधित फूलों का साज सज्जा के लिए प्रयोग किया जाता है। इस मेले में गुजरात के साथ-साथ देश- विदेश को लोग भी दूर-दूर से इस मेले में शामिल होने के लिए आते हैं। यह मेला बच्चों-बजुर्गों, स्त्री-पुरुष सभी के लिए उपयोगी होता है। मेले में मुख्य रुप से गुजरात का प्रसिद्ध गरबा नृत्य किया जाता है। इस मेले में विशेष लोक-गीतों का आयोजन भी किया जाता है। यह मेला लोगों में खुशी बांटने का एक जरिया है।मानेकथरीका पूनम मेला की कथा
गुजरात राज्य का प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थ डाकोर जी, भारत के प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है। यहां पर बना रणछोड़ जी का मंदिर न सिर्फ अपनी शिल्प कला के लिए जाना जाता है, बल्कि भगवान कृष्ण के सुंदर स्वरूप के लिए भी प्रसिद्ध है। इस मंदिर के पीछे एक बहुत ही अनोखी बात जुड़ी हुई है। मान्यताओं के अनुसार, इस मंदिर में स्थित भगवान कृष्ण की मूर्ति को द्वारिका से चुरा कर यहां लाया गया था। प्राचीन मान्यताओं के अनुसार, डाकोर जी के मंदिर की मूर्ति द्वारिका से लाई गई थी, जिसके पीछे एक बहुत ही रोचक कथा जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि बाजे सिंह नाम का एक राजपूत डाकोर में रहता था, वह भगवान रणछोड़ का बड़ा भक्त था। वह अपने हाथों पर तुलसी का पैधा उगाया करता था और साल में दो बार द्वारिका जा कर भगवान को तुसली दल अर्पित करता था। कई सालों तक वह ऐसा करता रहा। जब वह बूढ़ा हो गया और चलने फिरने में असमर्थ हो गया, तब एक रात उसके सपने में भगवान ने दर्शन दिए। भगवान ने उससे कहा कि अब द्वारिका आने की कोई जरुरत नहीं है और उसे द्वारिका के मंदिर से भगवान की मूर्ति उठा कर डाकोर जी लाने को कहा। बाजे सिंह ने भगवान के बताए हुए तरीके से आधी रात में द्वारिका के मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करके, भगवान की मूर्ति वहां से चुरा ली और यहां लाकर स्थापित कर दी। अश्विन के महीने में पूर्णिमा दिवस वह दिन माना जाता है जिस पर भगवान कृष्ण दाकोर को रांचीहोराई के रूप में आए थे। यह इस तथ्य के पीछे भी कहानी है कि द्वारका और डाकोर दोनों में भगवान कृष्ण की मूर्तियों को रांचीहोरा कहा जाता है।To read this Article in English Click here