हिमाचल के चंबा जिले में सावन की रिमझिम फुहारों के बीच सावन माह में मिंजर मेले का आगाज होता है। इस बार ये मेला जुलाई 20, गुरुवार लगेगा। इस मेले का पारंपरिक और पर्यटन की दृष्टी से काफी महत्व है। सात दिन तक कई रंगारंग कार्यक्रम किये जाते हैं, दुकानें सजाई जाती हैं, महिलाएं और पुरुष अपने स्थानीय परिधान पहनकर लोकल नृत्य करते हैं। इस मेले को देखकर ऐसा लगता है मानो आप पुराने ज़माने में लौट आए हों। वो जमाना जब ना तो लाइट थी और ना ही नौकरी की कोई भागदौड़। इस मेले में सबसे पहले
भगवान लक्ष्मीनारायण को मिंजर अर्पित की जाती है। उसे के बाद अखंड चंडी महल में भगवान रधुवीर को इसे चढ़ाया जाता है, ऐतिहासिक चौगान में ध्वज चढ़ाने के बाद मिंजर का आगाज होगा।

मिंजर होता क्या है?

गेहूं, धान, मक्की और जौं की बालियों को ही स्थानीय भाषा में मिंजर कहा जाता है। मौजूदा दौर में जरी और गोटे से बनाई गईं बालियां मिंजर या मंजरी कमीज के बटन पर लगाई जाती हैं, जो दो हफ्ते बाद उतार कर रावी नदी में प्रवाहित कर दी जाती हैं।  भले ही इस उत्सव का मूल आधार चंबा के राजा के विजय के प्रतीक के रूप में लिया जाता है ,पर वास्तव में यह मेला आपसी स्नेह, सद्भाव और शुभकामनाओं का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करता है।

बहुरंगी लोक संस्कृति के दर्शन

ऐतिहासिक मिंजर मेला सामुदायिक सौहार्द का प्रतीक है। यह मेला धन- धान्य और सुख-शांति की कामना के साथ मनाया जाता है। इस मेले के दौरान सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से जहां लोगों को पूरे हिमाचल की बहुरंगी लोक संस्कृति के दर्शन होते हैं, वहीं अन्य प्रदेशों व बॉलीवुड के पार्श्व गायकों की कला देखने व सुनने का अवसर भी प्राप्त होता है। मेले ही हमारी प्राचीन संस्कृति व इतिहास के गवाह हैं। इन्हीं के कारण आज हमारी संस्कृति बची हुई है और समाज भी एक जुट है। चंबा के मिंजर मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रमों का भी अपना ही आकर्षण रहता है।

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