परशुराम जी की गणना दशावतारों में होती है। परशुराम का प्रादुर्भाव वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च के ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से हुआ था। जिसे आज अक्षय तृतीया कहा जाता है। अक्षय तृतीया को भगवान परशुराम का जन्म माना जाता है।
इस तिथि को प्रदोष व्यापिनी रूप में ग्रहण करना चाहिए क्योंकि भगवान परशुराम का प्राकट्य काल प्रदोष काल ही है। परशुराम अपनी तेज, साहस और बाहदूरी के लिए तो प्रसिद्ध थे लेकिन इससे भी ज्यादा वो अपनी वचनबद्धता और चतुराई के लिए प्रसिद्ध थे। यही कारण था कि अपने पिता का मान रखते हुए उन्होंने अपनी ही माता को मार दिया और फिर बड़ी चतुराई से वरदान स्वरुप उन्हें जीवित भी कर दिया।
परशुराम और भगवान राम का धनुष तोड़ने का संवाद बहुत प्रसिद्ध है। परशुराम जितने ही क्रोधित थे भगवान राम उतने ही शांत। तभी तो परशुराम के क्रोध को शांत करने के लिए भगवान राम ने कहा कि| “नाथ संभुधनु भजन निहारा, होइहि केउ एक दास तुम्हारा”।
अर्थात राम ने परशुराम जी से कहा कि हे नाथ शिवजी के इस धनुष को तोड़ने वाला आप ही का एक दास है। भगवान परशुराम महर्षि जमदग्नि के पुत्र थे। पुत्रोत्पत्ति के निमित्त इनकी माता तथा विश्वामित्र जी की माता को प्रसाद मिला था जो देव शास्त्र द्वारा आपस में बदल गया था। इससे रेणुका का पुत्र परशुराम जी ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे जबकि विश्वामित्र जी क्षत्रिय कुल में उत्पन्न होकर भी ब्रह्मर्षि हो गए।
जिस समय इनका अवतार हुआ था उस समय पृथ्वी पर क्षत्रिय राजाओं का बाहुल्य हो गया था। उन्ही में से एक राजा ने उनके पिता जमदग्नि का वध कर दिया था, जिससे क्रुद्ध होकर इन्होंने 21 बार दुष्टों राजाओं से पृथ्वी को मुक्त किया। भगवान शिव के दिए हुए परशु अर्थात फरसे को धारण करने के कारण इनका नाम परशुराम पड़ा । परशुराम के एक इशारे पर नदियों की दिशा बदल जाया करतीं, अपने बल से आर्यों के शत्रुओं का नाश किया, हिमालय के उत्तरी भू-भाग, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, कश्यप भूमि और अरब में जाकर शत्रुओं का संहार किया। उसी फारस जिसे पर्शिया भी कहा जाता था, का नाम इनके फरसे पर किया गया।
भगवान परशुराम का जीवन
अक्षय तृतीया भगवान परशुराम के जन्मदिन के लिए एक और नाम है। एक धारणा है कि इस दिन अच्छे काम करने से शुभ फल प्राप्त होता हैय़ ऐसा माना जाता है कि अक्षय तृतीया त्रेता युग की शुरुआत को चिन्हित करती है। एक कथा के अनुसार जब समस्त देवी-देवता असुरों के अत्याचार से परेशान होकर महादेव के पास गए तो शिव जी ने अपने परम भक्त परशुराम को उन असुरों का वध करने के लिए कहा जिसके पश्चात परशुराम ने बिना किसी अस्त्र शस्त्र के सभी राक्षसों को मार डाला।यह देख शिवजी अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने परशुराम को कई शस्त्र प्रदान किये जिनमें से एक फरसा भी था। उस दिन से वे राम से परशुराम बन गए। परशुराम अपने माता पिता की भक्ति में लीन थे वो अपने माता-पिता की आज्ञा की कभी अवहेलना नहीं करते थे। एक बार उनकी माता रेणुका नदी में जल भरने के लिए गयी वहां गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख रेणुका कुछ देर तक वहीं रुक गयीं।
जिसके कारण उन्हें घर वापस लौटने में देर हो गयी। इधर हवन में बहुत देरी हो चुकी थी। उनके पति जमदग्नि ने अपनी शक्तियों से उनके देर से आने का कारण जान लिया और उन्हें अपनी पत्नी पर बहुत गुस्सा आने लगा। जब रेणुका घर पहुंची तो जमदग्नि ने अपने सभी पुत्रों को उसका वध करने के लिए कहा। किन्तु उनका एक भी पुत्र साहस नहीं कर पाया। तब क्रोधवश जमदग्नि ने अपने चार पुत्रों को मार डाला। उसके बाद पिता की आज्ञा का पालन करते हुए परशुराम ने अपनी माता का वध कर दिया। अपने पुत्र से प्रसन्न होकर परशुराम ने उसे वरदान मांगने को कहा। परशुराम ने बड़ी ही चतुराई से अपने भाइयों और माता को पुनः जीवित करने का वरदान मांग लिया।
जिससे उन्होंने अपने पिता का भी मान रख लिया और माता को भी पुनर्जिवित कर दिया। एक और पौराणिक कथाओं में इस बात का उल्लेख मिलता है कि परशुराम ने ही गणेश जी का एक दांत तोड़ा था। इसके पीछे की कथा है कि एक बार परशुराम कैलाश शिव जी मिलने पहुंचे किंतु महादेव घोर तपस्या में लीन थे इसलिए गजानन ने उन्हें भोलेनाथ से मिलने नहीं दिया। इस बात से क्रोधित होकर परशुराम ने उनपर अपना फरसा चला दिया। क्योंकि वह फरसा स्वयं शंकर जी ने उन्हें दिया था इसलिए गणपति उसका वार खाली नहीं जाने देना चाहते थे। जैसे ही परशुराम ने उन पर वार किया उन्होंने उस वार को अपने दांत पर ले लिया जिसके कारण उनका एक दांत टूट गया तब से गणेश जी एकदन्त भी कहलाते है।
परशुराम ने 21 बार क्षत्रिय राजाओं का किया वध
परशुराम भले ही जन्म से ब्रह्रामण थे किन्तु उनमें गुण और बल हजार क्षत्रियों से भी ज्यादा था। माना जाता है कि परशुराम ने 21 बार हैहयवंशी क्षत्रियों को वंश इस धरती पर से नष्ट किया था। क्षत्रियों का एक वर्ग है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है यह समाज आज भी है। सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त। महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था। सहस्त्रार्जुन ने परशुराम के पिता जमदग्नि के आश्रम में एक कपिला कामधेनु गाय को देखा और उसे पाने की लालसा से वह कामधेनु को बलपूर्वक आश्रम से ले गया।जब परशुराम को यह बात पता चली तो उन्होंने पिता के सम्मान के खातिर कामधेनु वापस लाने को सोचा और सहस्त्रार्जुन से उन्होंने युद्ध किया। युद्ध में सहस्त्रार्जुन की सभी भुजाएँ कट गईं और वह मारा गया। जिसके बाग सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध की भावना में ग्रसित होकर परशुराम की अनुपस्थिति में उनके पिता जमदग्नि को मार डाला। परशुराम की माँ रेणुका पति की हत्या से विचलित होकर उनकी चिताग्नि में सती हो गयीं। इस घोर घटना ने परशुराम को क्रोधित कर दिया और उन्होंने संकल्प लिया कि वो इस वंश का नाश कर देंगे।
जिसके बाद क्रोधपूर्वक उन्होंने हैहयवंशी क्षत्रियों से 21 बार युद्ध किया और इस वंश का सर्वनाश किया। पृथ्वी बिना क्षत्रियों की हो गई थी तब ऋषि कश्यप ने परशुराम को पृथ्वी छोड़कर जाने के लिए कह दिया। जिससे परशुराम को एहसास हुआ कि उन्होंने क्रोध पूर्वक सभी क्षत्रियों को मिटा दिया है।
इससे तो धरती पर कभी कोई क्षस्त्रिय बचेगा ही नही। जिसके बाद वे महेन्द्रगिरि पर्वत पर चले गए। वहां उन्होंने कई वर्षों तक कठोर तपस्या की। जब रामावतार हुआ और राम जी ने शिवजी का धनुष तोड़ा तब वो राम जी के समक्ष आए। थे अन्य सभी अवतारों के विपरीत हिंदू विश्वास के अनुसार परशुराम अभी भी पृथ्वी पर रहते है। इसलिए, राम और कृष्ण के विपरीत परशुराम की पूजा नहीं की जाती है।
परशुराम जंयती उत्सव और पूजा विधि
परशुराम का जन्मदिन वैशाख महीने के शुक्ला पक्ष के तीसरे दिन मनाया जाता है। इस दिन परशु राम द्ववाशी के रूप में भी जाना जाता है और इस दिन उपवास करने वाले लोगों को पुत्र होने का आशीर्वाद दिया जाता है। पुराण के अनुसार, इस दिन उपवास रखते हुए, भक्त ब्रह्मलोक में स्थान पाते हैं और और राजा के घऱ जन्म लेते हैं। दक्षिण भारत में, उडुपी के पास पजका के पवित्र स्थान पर, एक बड़ा मंदिर मौजूद है जो परशुराम का स्मरण करता है।भारत के पश्चिमी तट पर कई मंदिर हैं जो भगवान परशुराम को समर्पित हैं। इस दिन भगवान परशुराम के पराक्रमों को याद किया जाता है। उनसे प्रार्थना की जाती है। पूजा-पाठ, सत्संग इत्यादि किया जाता है। परशुराम जी दानी थे इसलिए इस दिन दान करने की भी अत्यंत महिमा होती है। परशुराम जंयती व्रत के दिन साधक प्रात:काल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करते हें। पूजा स्थल को शुद्ध करने के बाद आसन लगाकर चौकी या लकड़ी के पटरे पर श्रीपरशुराम जी के विग्रह को स्थापित करते हैं। हाथ में अक्षत, जल तथा पुष्प लेकर निम्न मंत्र के द्वारा व्रत का संकल्प करते हैं:-
“ मम ब्रह्मत्व प्राप्तिकामनया परशुराम पूजनमहं करिष्ये ”
इसके बाद हाथ के पुष्प तथा अक्षत परशुराम जी के पास छोड़ देंते हैं।
शाम को पुन: स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करना होता है। कई मान्यता है कि इस दिन मौन भी धारण करना चाहिए। शाम को पूजा स्थान पर बैठकर षोडशोपचार विधि से पूजन करना चाहिए। धूप, दीप नैवेद्य अर्पित करना चाहिए। और परशुराम जी को ध्यान कर इस मंत्र का उच्चारण करना चाहिए।
जमदग्निसुतो वीर क्षत्रियान्तकर प्रभो।
गृहाणार्घ्य मया दत्तं कृपया परमेश्वर ॥
अर्थात‘ हे प्रभु ! आप जमदग्नि के पुत्र हो और क्षत्रियों का नाश करने वाले हो, अत: कृपया मेरे दिये अर्घ्य को स्वीकार करो।’ परशुराम जी की कथा सुननी चाहिए और आरती कर पूरी रात्रि राम मंत्र का जाप करते हुये जागरण करना चाहिए अगले दिन स्नान, ध्यान करके पारण करना चाहिए और भगवान परशुराम का आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए।
To read this article in English Click here