
कबीर जी का जन्म ऐसे समय पर हुआ था जब समाज, जात-पात, उंच-नीच जैसे कुरीतियों के बीच जी रहा था। कबीर दास जी को किसी एक श्रेणी में रखना मुश्लिक है वो कभी खुद को ब्राह्रमण कभी, संत, कभी वैष्णव, तो कभी खुद को अल्लाह का बच्चा बताते थे। वो कभी किसी एक धर्म के होकर नहीं रहे। उन्होंने हर धर्म का आदर किया, उसे अपनाया, सभी धर्मों को एक समझा। उन्होंने हमेशा एक उलझन वाली स्थित बनाई रखी जिससे उन्हें किसी भी एक धर्म का कहना मुश्किल था। उनकी कविताओं, पद्दो और छंदो में एक से अधिक भाषाओं का संगम रहा जिसे ‘खिचड़ी’ भी कहा जाता है। वो हर भाषा का प्रयोग कर लिखते थे उनका मानना था कि शिक्षा की कोई भाषा नहीं होती। उनके लिए ग्रंथ बहुत ही सुंदर और भावनाओं से भरे हुए होते थे। पेशेवर रुप से कबीर दास जी बुनाई का काम किया करते थे। वो ज्यादातर समय अपनी कुटीया में ही व्यतीत करते थे। उन्होंने हिन्दूं, मुस्लिमों पर इस तरह अपना जादू फैलाया था कि हर कोई उन्हें अपना समझता था।
संत कबीर दास से जुड़ी घटनाएं
संत कबीर दास अपने जीवन में इतने ज्यादा खुले व्यवहार और सोच के थे कि जब 1518 में अपने अंतिम समय में गोरखपुर के मगहर पहुचें तो उन्होंने अपना शरीर त्याग दिया। जिसके बाद उनके अंतिम संस्कार को लेकर हिन्दूं और मुस्लमानों में काफी विवाद उत्पन्न हो गया। जिस धर्म को एक करने के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन बिता दिया उन्हीं की मृत्यु के बाद उनके शरीर को लेकर विवाद होने लगा। हिन्दू कहने लगे कि वो कबीर दास जी का अंतिम संस्कार जला कर करेंगे और मुस्लिम कहने लगे कि वो दफना कर करेगें। ऐसा कहा जाता है कि विवाद होता देख उनका पार्थिव शरीर फूलों को बन गया जिसके बाद हिन्दू और मुस्लमानों ने उनके फूलों को आधा-आधा बांट लिया। आधे फूलों को हिन्दूओं ने गंगा में बहाया और मुस्लिमों ने जमीन में दफनाया था।संत कबीर दास जंयती समारोह
कबीर साहब ने अपने जीवन में मनुष्यों को कई शिक्षाएं दी। उनका कहना था कि ‘बुरा जो देखन मैं चला बुरा ना मिला कोए, जो मन अपना देखिया मुझसे बुरा ना कोए’ अर्थात वो कहते थे कि दूसरों में कमियां, बुराईयां ढूंढने की जगह हमें स्वंय में बुराईयां ढूंढनी चाहिए क्योंकि सारी कुरितियां तो हमारे भीतर ही समाहित है। वहीं कबीर दास जी ने मूर्ति पूजा का भी बहुत विरोध किया था उनका कहना था कि ‘पत्थर पूजे हरि मिले तो मैं पूजूं पहाड़, या से वो चाकि भलि जो पिस खाय संसार’ यानि कि पत्थर को भगवान मानकर पूजा करने से यदि कुछ मिलता है तो मैं सीधा पहाड़ की पूजा करुंगा, इन सब से तो अच्छी मेरी चक्की है जिसमें अनाज पीसने से पेट भरेगा। कबीर दास अपने पूरे जीवन में विभिन्न घटनाओं से प्रभावित थे जिसने उन्हें और भी ज्यादा लोकप्रिय बना दिया था। अध्यात्मिक कुरितियों को तोड़ने के लिए उन्होंने किसी भी धर्म को ना अपनाना ही ठीक समझा। लोगों को विश्वास था कि कबीर दास जी के पास कुछ जादूई शक्तियां है जिसके परिणामस्वरुप उन्हें सिंकदर लोदी की अदालत में ले जाया गया। इस घटना के बाद 1495 में कबीर दास जी ने वाराणसी को हमेशा के लिए छोड़ दिया वो फिर कभी बनारस वापस नहीं आए। उन्होंने पूरे देश का दौरा किया। उन्हें कम शब्दों में अधिक कह जाने की कला में महारत हासिल थी। जिसका प्रभाव लोगों पर खूब पड़ता था। कबीर जी की कहना था कि भगवान ना काबा में है ना कैलाश में। वो मन के भीतर है यदि ईश्वर को ढूंढना है तो स्वंय के अंदर ढूंढो। संत कबीर दास जी की जंयती प्रतिवर्ष ज्येष्ठ मास की पूर्णमा को बड़े ही धूमधाम से मनाई जाती है। जगह-जगह उनकी शिक्षाओं से लोगों को प्रेरित किया जाता है। कबीर साहब जी द्वारा लिखित ग्रंथ ‘बीजक’ धार्मिक ग्रंथों में से एक है।To read this Article in English Click here