क्यों मनाई जाती है?
जन्म और मृत्यु के समय में किये जाने वाले संस्कारों का हिन्दु धर्म में अत्यधिक महत्व है। हिन्दु धर्म में मृत्यु के समय कुछ महत्वपूर्ण संस्कार निर्धारित है जो केवल पुत्र द्वारा ही किये जाते हैं। पुत्र के द्वारा किये जाने वाले अन्तिम संस्कारों से ही माता-पिता की आत्मा को मुक्ति मिलती है। माता-पिता की मृत्यु के बाद श्राद्ध की नियमित क्रियायें भी पुत्र द्वारा ही सम्पादित की जाती है। ऐसा माना जाता है कि श्राद्ध करने से मृतक की आत्मा को तृप्ति मिलती है। जिन दम्पत्तियों को जीवन में पुत्र सुख की प्राप्ति नहीं होती वो अत्यधिक परेशान रहते हैं। पुत्र सुख की प्राप्ति के लिए पुत्र एकादशी का व्रत रखा जाता है। जिन दम्पत्तियों को कोई पुत्र नहीं होता उनके लिए पुत्रदा एकादशी का व्रत अत्यधिक महत्वपूर्ण है।व्रत कथा
श्री पद्मपुराण में कथा है कि द्वापर युग में महिष्मतीपुरी का राजा महीजित शांति एवं धर्मप्रिय था। लेकिन वह पुत्र-विहीन था। राजा के शुभचिंतकों ने यह बात महामुनि लोमेश को बताई तो उन्होंने बताया कि राजन पूर्व जन्म में एक अत्याचारी, धनहीन वैश्य थे।इसी एकादशी के दिन दोपहर के समय वे प्यास से व्याकुल होकर एक जलाशय पर पहुंचे, तो वहां गर्मी से पीड़ित एक प्यासी गाय को पानी पीते देखकर उन्होंने उसे रोक दिया और स्वयं पानी पीने लगे। राजा का ऐसा करना धर्म के अनुरूप नहीं था। अपने पूर्व जन्म के पुण्य कर्मों के फलस्वरूप वे अगले जन्म में राजा तो बने, किंतु उस एक पाप के कारण संतानविहीन हैं। पुन: महामुनि ने बताया कि राजा के सभी शुभचिंतक यदि श्रावण शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को विधिपूर्वक यह व्रत करें और उसका पुण्य राजा को दे दें तो निश्चय ही उसे संतान रत्न की प्राप्ति होगी। इस प्रकार मुनि के निर्देशानुसार प्रजा के साथ-साथ जब राजा ने भी यह व्रत रखा, तो कुछ समय बाद रानी ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। तभी से इस एकादशी को पुत्रदा एकादशी कहा जाने लगा। पुत्रदा यानी पुत्र देने वाली।
व्रत विधि
इस व्रत को करने वालों को सुबह स्नानादि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करके श्री हरि का ध्यान करना चाहिए। सबसे पहले धूप-दीप आदि से भगवान नारायण का पूजन करना चाहिए। उसके बाद फल-फूल, नारियल, पान-सुपारी, लौंग, बेर, आंवला आदि श्री हरि को अर्पित करना चाहिए। पूरे दिन निराहार रहकर संध्या समय में कथा श्रवण पश्चात फलाहार करना चाहिए। भक्तिपूर्वक इस व्रत को करने से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है। संतान की इच्छा रखने वाले नि:संतान व्यक्ति को इस व्रत के प्रताप से संतान रत्न की प्राप्ति होती है। जो दंपति श्रद्धा से इस व्रत को करते हैं उनके दांपत्य जीवन के क्लेश और कष्ट भी नष्ट हो जाते हैं। एकादशी के व्रत को समाप्त करने को पारण कहते हैं। एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद पारण किया जाता है। एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि समाप्त होने से पहले करना अति आवश्यक है। यदि द्वादशी तिथि सूर्योदय से पहले समाप्त हो गयी हो तो एकादशी व्रत का पारण सूर्योदय के बाद ही होता है। द्वादशी तिथि के भीतर पारण न करना पाप करने के समान होता है। एकादशी व्रत का पारण हरि वासर के दौरान भी नहीं करना चाहिए। जो श्रद्धालु व्रत कर रहे हैं उन्हें व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर समाप्त होने की प्रतिक्षा करनी चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। व्रत तोड़ने के लिए सबसे उपयुक्त समय प्रातःकाल होता है। व्रत करने वाले श्रद्धालुओं को मध्यान के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। कुछ कारणों की वजह से अगर कोई प्रातःकाल पारण करने में सक्षम नहीं है तो उसे मध्यान के बाद पारण करना चाहिए।To read this article in English click here