भाद्रपद (भादो) महीने की संक्रांति जिसे सिंह संक्रांति भी कहते हैं, उत्तराखंड में घी संक्रांति या ओल्गी संक्रांति के रूप में मनाई जाती है| वस्तुतः यह कृषि और पशुपालन से जुड़ा हुआ एक लोक पर्व है| बरसात के मौसम में उगाई जाने वाली फसलों में बालियाँ आने लगती हैं| किसान अच्छी फसलों की कामना करते हुए ख़ुशी मनाते हैं| बालियों को घर के मुख्य दरवाज़े के ऊपर या दोनों और गोबर से चिपकाया जाता है| बरसात में पशुओं को खूब हरी घास मिलती है| दूध में बढ़ोतरी होने से दही-मक्खन-घी भी प्रचुर मात्रा में मिलता है| अतः इस दिन घी का प्रयोग अवश्य ही किया जाता है|
मान्यता
चरक संहिता में कहा गया है कि घी- स्मरण शक्ति, बुद्धि, ऊर्जा, बलवीर्य, ओज बढ़ाता है। घी वसावर्धक है। यह वात, पित्त, बुखार और विषैले पदार्थों का नाशक है। इस शुरूआत का मतलब यह नहीं है कि आज आपको दूध से बने दही और उसे मथकर तैयार किये गये मक्खन को धीमी आंच पर पिघलाकर तैयार होने वाले घी के गुणों के बारे में बता रहा हूं। असल में आपको यह बताना चाहता हूं कि आज घी संक्रांति या घिया संक्रांद या घी-त्यार है। गढ़वाल में इसे आम भाषा में घिया संक्रांद और कुमांऊ में घी-त्यार कहते हैं। उत्तराखंड में लगभग हर जगह आज के दिन घी खाना जरूरी माना जाता है।कहा जाता है जो इस दिन घी नहीं खायेगा उसे अगले जन्म में गनेल यानी घोंघे के रूप में जन्म लेना होगा| यह घी के प्रयोग से शारीरिक और मानसिक शक्ति में वृद्धि का संकेत देता है| शायद यही वजह है कि नवजात बच्चों के सिर और पांव के तलुवों में भी घी लगाया जाता है। यहां तक उसकी जीभ में थोड़ा सा घी रखा जाता है।
उत्तराखंड में यूं तो प्रत्येक महीने की संक्रांति को कोई त्योहार मनाया जाता है। इनमें भाद्रपद यानि भादौ महीने की संक्रांति भी शामिल है। इस दिन सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करता है और इसलिए इसे सिंह संक्रांति भी कहते हैं।

सुधि ब्राह्मणजनों के अनुसार भाद्रपद संक्रांति का पुण्य काल दोपहर 12 बजकर 15 मिनट से आरंभ होगा। उत्तराखंड में भाद्रपद संक्रांति को ही घी संक्रांति के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यहां हर परिवार जरूर घी का सेवन करता है। जिसके घर में दुधारू पशु नहीं होते गांव वाले उनके यहां दूध और घी पहुंचाते हैं। जब तक गांव में था तब तक मां पिताजी ने हमेशा यह सुनिश्चित किया कि कम से कम घिया संक्रांद के दिन हमें घी खाने को जरूर मिले।
घी संक्रांति के अलावा कुछ क्षेत्रों विशेषकर कुमांऊ में ओलगी या ओलगिया का त्योहार भी मनाया जाता है जिसमें शिल्पकार अपनी बनायी चीजों को गांव के लोगों को देते हैं और इसके बदले उन्हें धन, अनाज मिलता है। यह प्रथा चंद्रवंशीय राजाओं के समय से पड़ी। तब राजाओं को कारीगर अपनी चीजों को भेंट में देते थे और इसके बदले उन्हें पुरस्कार मिलता था। जो दस्तकार या शिल्पकार नहीं होते थे वे साग सब्जी, फल, मिष्ठान, दूध, दही, घी राज दरबार में ले जाते थे। घी संक्रांति प्रकृति और पशुधन से जुड़ा त्योहार है। बरसात में प्रकृति अपने यौवनावस्था में होती है और ऐसे में पशु भी आनंदित हो जाते हैं। उन्हें इस दौरान खूब हरी घास और चारा मिलता है।
कहने का मतलब है कि आपका पशुधन उत्तम है। आपके पास दुधारू गाय भैंस हैं तभी आप घी का सेवन कर सकते हैं। घोंघा बनने का मतलब यह है कि अगर आप मेहनती नहीं हैं, आलसी हैं तो फिर आपकी फसल अच्छी नहीं होगी और आपका पशुधन उत्तम नहीं होगा। आप आलसी हैं और इसलिए प्राकृतिक संसाधनों का अच्छी तरह से उपयोग नहीं कर पाते। यहां पर घोंघा आलस्य का प्रतीक है। जिसकी गति बेहद धीमी होती है और इस कारण बरसात में अक्सर रास्ते में पांवों के नीचे कुचला जाता है।
कैसे मनाई जाती है?

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