कृष्ण की हर लीला का वर्णंन उन्होंने अपने दोहों के माध्यम से इस प्रकार किया है कि हर ओर कृष्ण ही कृष्ण दिखाई पड़ते हैं। गुरु वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग पर सूरदास ऐसे चले कि वे इस मार्ग के जहाज तक कहलाए। अपने गुरु की कृपा से भगवान श्री कृष्ण की जो लीला सूरदास ने देखी उसे उनके शब्दों में चित्रित होते हुए हम आज देखते हैं। महाकवी सूरदास के जन्म के विषय में तो काफी मतभेद है किन्तु फिर कई विद्वान उनका जन्म 1479 में मानते हैं। वैशाख शुक्ल पंचमी को सूरदास जी की जयंती मनाई जाती है। सूरदास की महानता को सम्मान देते हुए भारतीय डाक विभाग ने उनके नाम से एक डाक टिकट भी जारी किया था।

सूरदास का जीवन परिचय
कवि सूरदास का जन्म दिल्ली के पास सीही नामक गांव में बहुत निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके तीन बड़े भाई थे। सूरदास जन्म से ही अंधे थे, किंतु भगवान ने उन्हें सगुन बताने की एक अद्भुत शक्ति से परिपूर्ण करके धरती पर भेजा था। मात्र छ: वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने अपने माता-पिता को अपनी सगुन बताने की विद्या से चकित कर दिया था। लेकिन उसके कुछ ही समय बाद वे घर छोड़कर अपने घर से चार कोस दूर एक गांव में जाकर तालाब के किनारे रहने लगे थे।सगुन बताने की विद्या के कारण शीघ्र ही उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गई। इस उपलब्धि के साथ ही वे गायन विद्या में भी शुरू से ही प्रवीण थे। फिर अठराह साल की उम्र में उन्हें संसार से विरक्ति हो गई और सूरदास वह स्थान छोड़कर यमुना के किनारे (आगरा और मथुरा के बीच) गऊघाट पर आकर रहने लगे। गऊघाट पर उनकी भेंट गुरु वल्लभाचार्य से हुई। सूरदास गऊघाट पर अपने कई सेवकों के साथ रहते थे और वे सभी उन्हें 'स्वामी' कहकर संबोधित करते थे। वल्लभाचार्य ने उनकी सगुण भक्ति से प्रभावित होकर उनसे भेंट की और उन्हें पुष्टिमार्ग में दीक्षित किया। वल्लभाचार्य ने उन्हें गोकुल में श्रीनाथ जी के मंदिर पर कीर्तनकार के रूप में नियुक्त किया और वे आजन्म वहीं रहे।
वहां वे कृष्ण भक्ति में मग्न रहें। उस दौरान उन्होंने वल्लभाचार्य द्वारा 'श्रीमद् भागवत' में वर्णित कृष्ण की लीला का ज्ञान प्राप्त किया तथा अपने कई पदों में उसका वर्णन भी किया। उन्होंने 'भागवत' के द्वादश स्कन्धों पर पद-रचना की, 'सहस्त्रावधि' पद रचे, जो 'सागर' कहलाएं। सूरदास की पद-रचना और गान-विद्या की ख्याति सुनकर अकबर भी उनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकें।
अत: उन्होंने मथुरा आकर सूरदास से भेंट की। श्रीनाथजी के मंदिर में बहुत दिनों तक कीर्तन करने के बाद जब सूरदास को अहसास हुआ कि भगवान अब उन्हें अपने साथ ले जाने की इच्छा रख रहे हैं, तो वे श्रीनाथजी में स्थित पारसौली के चन्द्र सरोवर पर आकर लेट गए और श्रीनाथ जी की ध्वजा का ध्यान करने लगे। इसके बाद सूरदास ने अपना शरीर त्याग दिया।
सूरदास जी का कृष्ण प्रेम काव्य
संत सूरदास का कवि वत्सल्य रस में महत्वपूर्ण योगदान हैं। वह एक समर्पित संत थे जिन्होंने कृष्ण का अनुसरण किया। उनके काव्य में कृष्ण भक्ति का रस साफ झलकता है। कुछ इतिहासकारों ने उनके बारे में एक कि एक बार सूरदास ने अपने सपने में भगवान कृष्ण को देखा और कृष्णा ने उन्हें वृंदावन जाने के लिए कहा और उन्हें गुरु कृष्ण के प्रबल भक्त गुरु वल्लभचार्य से मिले। सूरदास ने उनसे हिंदू शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया और तब से सूरदास ने अपना पूरा जीवन कृष्णा को समर्पित कर दिया।उन्होंने पूरे जीवन केवल कृष्ण को ही अपना आदर्श माना और उनका अनुसरण करते हुए काव्य लिखा। सूरदास जी द्वारा लिखित पांच प्रमुख ग्रंथ बताए जाते हैं -सूरसागर, सूरसारावली, साहित्य-लहरी, नल-दमयंती और ब्याहलो। भगवान कृष्ण के कई भक्तों ने उनकी रास लीलाओं और युद्ध में उनके पराक्रमों का वर्णन किया है। कृष्ण भक्ति में लेने होकर उनके दीवानों ने उनके बारे में कई श्लोक और दोहे लिखे।
किन्तु संत सूरदास के दोहों ने भगवान कृष्ण के एक नए रूप को दुनिया के सामने उजागर किया। केवल संत सूरदास की रचनाओं ने ही दुनिया का कृष्ण के बाल रूप से परिचय करवाया। लोगों ने कृष्ण के बाल रूप से प्रेम किया, उसे 'नंदलाल' कहकर खुद के बच्चे की तरह अपने घरों में स्थान दिया। सूरदास जी के पिता रामदास एक गायक और संगीतकार थे जिस कारण सूरदास जी बचपन से से ही संगीत में रूचि रखते थे। सूरदास जी ने कृष्ण की नटखट लीलाओ को अपने काव्य रूप में वर्णन किया है।
जसोदा हरि पालनैं झुलावै। हलरावै दुलरावै मल्हावै जोइ सोइ कछु गावै॥ मेरे लाल को आउ निंदरिया काहें न आनि सुवावै। तू काहै नहिं बेगहिं आवै तोकौं कान्ह बुलावै॥
अर्थात, संत सूरदास यहां कह रहे हैं कि भगवान कृष्ण की मां उन्हें पालने में झूला रही हैं। मां यशोदा पालने को हिलाती हैं, फिर अपने 'लाल' को प्रेम भाव से देखती हैं, बीच बीच में नन्हे कृष्ण का माथा भी चूमती हैं। कृष्ण की यशोदा मैया उसे सुलाने के लिए लोरी भी गा रही हैं और गीत के शब्दों में 'नींद' से कह रही हैं कि तू कहाँ है, मेरे नन्हे लाल के पास आ, वह तुझे बुला रहा है, तेरा इन्तजार कर रहा है।
सुत-मुख देखि जसोदा फूली। हरषित देखि दुध को दँतियाँ, प्रेममगन तन की सुधि भूली। बाहिर तैं तब नंद बुलाए, देखौ धौं सुंदर सुखदाई। तनक तनक सों दूध-दँतुलिया, देखौ नैन सफल करो आई।
अर्थात, इस दोहे में संत सूरदास उस घटना का वर्णन कर रहे हैं जब पहली बार मां यशोदा ने कान्हा के मुंह में दो छोटे-छोटे दांत देखे। यशोदा मैया नन्हे कृष्ण का मुख देखकर फूली नहीं समा रही हैं। मुख में दो दांत देखकर वे इतनी हर्षित हो गई हैं कि सुध-बुध ही भूल गई हैं। खुशी से उनका मन झूम रहा है। प्रसन्नता के मारे वे बाहर को दौड़ी चली जाती हैं और नन्द बाबा को पुकार कर कहती हैं कि ज़रा आओ और देखो हमारे कृष्ण के मुख में पहले दो दांत आए हैं।
मैया कबहिं बढ़ेगी चोटी।
किती बार मोहिं दूध पिबत भई, यह अजहूँ है छोटी।|
तू जो कहति बल की बेनी ज्यौं, ह्वै ह्वै लाँबी-मोटी।
काढत-गुहत न्हवावत जैहैं, नागिन सी भई लोटी।|
काँचो दूध पिवाबत पचि-पचि, देत न माखन-रोटी।
सूरज चिरजीवौं दोउ भैया, हरि-हलधर की जोरी।।
इस लीला में सूरदासजी ने बालहृदय का कोना-कोना झाँक लिया है। यशोदा श्रीकृष्ण को दूध पिलाना चाहती हैं, और कहती हैं कि इससे तुम्हारी चोटी बढ़ जायेगी और बलराम जैसी हो जायेगी। स्पर्धावश वह दूध पीने लगते हैं, पर वे चाहते हैं कि दूध पीते ही उनकी चोटी बढ़ जाये। और दूध पीकर भी चोटी न बढ़ने पर वह माँ यशोदा को उलाहना भी बड़े सशक्त ढंग से देते हैं–‘तू कच्चा दूध तो भरपेट देती है, पर माखन-रोटी के बिना चोटी नहीं बढ़ेगी।‘
मैं नहिं माखन खायो।
मैया! मैं नहिं माखन खायो।।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि मेरैं मुख लपटायो॥
देखि तुही छींके पर भाजन ऊंचे धरि लटकायो।
हौं जु कहत नान्हें कर अपने मैं कैसें करि पायो॥
मुख दधि पोंछि बुद्धि इक कीन्हीं दोना पीठि दुरायो।
डारि सांटि मुसुकाइ जशोदा स्यामहिं कंठ लगायो॥
बाल बिनोद मोद मन मोह्यो भक्ति प्राप दिखायो।
सूरदास जसुमति को यह सुख सिव बिरंचि नहिं पायो॥
राग रामकली में बद्ध यह सूरदास का अत्यंत प्रचलित पद है। श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं में माखन चोरी की लीला सुप्रसिद्ध है। वैसे तो कन्हैया ग्वालिनों के घरों में जा-जाकर माखन चुराकर खाया करते थे। लेकिन आज उन्होंने अपने ही घर में माखन चोरी की और यशोदा ने उन्हें देख भी लिया। इस पद में सूरदास ने श्रीकृष्ण के वाक्चातुर्य का जिस प्रकार वर्णन किया है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता।