तुकाराम जयंती महाराष्ट्र के प्रसिद्ध हिंदू संत, संत तुका राम के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। संत तुकाराम एक महान संत होने के साथ-साथ एक धर्मसुधारक और समाजसुधार भी थे। संत तुकाराम का जन्म 1608 में महाराष्ट्र के पुणे के देहू गांव में हुआ था। उनके पिता छोटे काराबोरी थे। उन्होंने महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन की नींव रखी थी। संत तुकाराम तत्कालीन भारत में चले रहे 'भक्ति आंदोलन' के एक प्रमुख स्तंभ थे। उन्हें 'तुकोबा' भी कहा जाता है। तुकाराम को चैतन्य नामक साधु ने 'रामकृष्ण हरि' मंत्र का स्वप्न में उपदेश दिया था। वे विट्ठल यानी विष्णु के परम भक्त थे। तुकराम जी की गहरी अनुभव दृष्टि बेहद गहरी व ईशपरक रही, जिसके चलते उन्हें कहने में संकोच न था कि उनकी वाणी स्वयंभू, ईश्वर की वाणी है। उनका कहना था कि दुनिया में कोई भी दिखावटी चीज नहीं टिकती। झूठ को लंबे समय तक संभाला नहीं जा सकता। झूठ से सख्त परहेज रखने वाले तुकाराम को संत नामदेव का रूप माना गया है। इनका समय सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध का रहा है। संत तुकाराम ने बहुत कम उम्र में पूजा-पाठ करना शुरू कर दिया था। उन्होंने अपने जीवन में बड़े दुखों का सामना किया था। जिससे तुकाराम सांसारिक सुखों से विरक्त होते जा रहे थे। इनकी दूसरी पत्नी 'जीजाबाई' धनी परिवार की पुत्री और बड़ी ही कर्कशा स्वभाव की थी। अपनी पहली पत्नी और पुत्र की मृत्यु के बाद तुकाराम काफ़ी दु:खी थे। तुकाराम का मन विट्ठल के भजन गाने में लगता, जिस कारण उनकी दूसरी पत्नी दिन-रात ताने देती थी। तुका राम क्षत्रिय परिवार से संबंधित थे। वह एक व्यापारी थे लेकिन दुख और लगातार नुकसान के कारण वे सफल नहीं हो सके। भगवान विट्ठल ने उन्हें सपने में आकर मोक्ष का मार्ग दिखाया। जिसके बाद उन्होंने सासांरिक जीवन से अपना मुख मोड़ लिया।

संत तुकाराम जयंती

संत तुकाराम की शिक्षाएं

संत तुकाराम आज से करीबन 500 साल पहले इस भूमी पर आए थे। उनके द्वारा किया गया महान कार्य उस युग में शुरु हुआ, उन्होनें समाज को ज्ञान का पाठ पढ़ाया। जिस वजह से मराठी संतों की माला में ‘ज्ञानदेवे रचिला पाया, तुका झालासे कळस’ कहकर, उनका गौरव किया जाता है। अर्थात महाराष्ट्र की भूमि पर यदि विट्ठल भक्ति और अध्यात्म की शुरुआत संत ज्ञानेश्वर द्वारा हुई तो इसे आगे बढ़ाकर उच्चतम अवस्था तक ले जाने का कार्य संत तुकाराम द्वारा संपन्न हुआ। तुकाराम महाराज का जीवन दया और क्षमा का सागर है। उन्होंने अपने अनुभव इतनी सहजता से और कपटमुक्त होकर बताए हैं, जिसे लोग आज अभंग के रूप में गाते हैं। तुकाराम महाराज ने उस वक्त के लोगों को वह ज्ञान दिया, जिसका अनुभव उन्होंने स्वयं किया था। सहज, सुंदर लोकभाषा और भक्ति के माध्यम से उन्होंने अपनी सिखावनियाँ उनकी गाथा में लिखी हैं। तुकाराम महाराज एक सामान्य पुरुष थे पर अपनी हरि भक्ति और निःस्वार्थ भाव से वे असामान्य संत बने। संसार का हर इंसान एक अच्छा इंसान बने, जिससे एक आदर्श समाज निर्माण हो, ऐसे विचार संत तुकाराम के मन में, जब वे साधक अवस्था में थे तब से आते थे। समाज में कैसे वर्ण, जाति, संपत्ति की वजह से अहंकार बढ़ता है और कैसे इस पाखण्ड को नष्ट करना है, इसका वर्णन उन्होंने अपने अभंगों द्वारा किया है। गुरु कृपा से उन्हें ईश्वर दर्शन हुआ और उन्होंने अपना जीवन विश्व कल्याण के लिए समर्पित किया। संत तुकाराम, ईश्वर को अपने अभंग में कहते हैं कि भगवान को भक्त की आवश्यकता है क्योंकि वह अपनी सराहना खुद नहीं कर सकता। इसलिए उसने भक्त का निर्माण किया है। वे ईश्वर को कहते हैं कि ‘तुम बिना भक्त के अधूरे हो क्योंकि तुम अपनी सराहना नहीं कर सकते।’ गाय खुद घास ही खा सकती है, दूध तो उसका बछड़ा ही पी सकता है यानी हर एक के अंदर जो चैतन्य-अनुभव है, उसकी सराहना की जा रही है। शरीर जब निमित्त बनता है तब वह सराहना करता है, आश्चर्य करता है और ईश्वर यह चाहता है। संत तुकाराम का जीवन वैराग्य और भक्ति का एक सुंदर संगम था, है, और रहेगा। निःस्वार्थ और परोपकारी जीवन का सागर था, है और रहेगा। वे सिर्फ वही ज्ञान देते, जो उन्होंने स्वयं आचरण में लाया था। उनके शब्दों, अभंगों और कीर्तनों में दृढ़ता थी। इसी कारण बहिणाबाई सेऊरकर और निळोबा पिंपलनेरकर जैसे शिष्य उनसे प्रभावित हुए थे।

संत तुकाराम की रचना

मराठी भाषा और कविता को संत तुकाराम का अधिक प्रभाव पड़ा है क्योंकि उन्होंने कई भजनों को लिखा और पढ़ा था। ये भजन व्यक्तित्व के समान ही प्रतिष्ठित हो गए। जिस तरह से विलियम शेक्सपियर अंग्रेजी भाषा से जुड़ा हुआ है, उसी तरह संत तुका राम मराठी भाषा से जुड़े हुए थे। संत तुका राम को मराठी साहित्य के साथ समरूप रूप से पहचाना जाता है क्योंकि उन्होंने मराठी के कई काव्यों की रचना की। उनकी मराठी पर जबरदस्त पकड़ थी। वो भगवान विट्ठल को अपनी सभी कविताओं और भजनों को समर्पित करते थे। वे भगवान के प्रति अपार प्यार और सम्मान से भरे हुए थे। महाराष्ट्र के साथ-साथ उनका प्रभाव इतना था कि उनकी कुछ कविताएं गुरु ग्रंथ साहिब में भी शामिल थीं। जीवन में असाधारण सफलता प्राप्त करने के बाद भी, उन्होंने महंगे कपड़े और गहने पहनने से इनकार कर दिया। वह सादगी में विश्वास करते थे और उन्होंने इसी का पालन किया। तुकाराम की अधिकांश काव्य रचना केवल अभंग छंद में ही है, तथापि उन्होंने रूपकात्मक रचनाएँ भी की हैं। सभी रूपक काव्य की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इनकी वाणी श्रोताओं के कान पर पड़ते ही उनके हृदय को पकड़ लेने का अद्भुत सामर्थ्य रखती है। इनके अभंग सूत्रबद्ध होते हैं। थोड़े शब्दों में महान् अर्थों को व्यक्त करने का इनका कौशल मराठी साहित्य में अद्वितीय है। तुकाराम की आत्मनिष्ठ अभंगवाणी जनसाधारण को भी परम प्रिय लगती है। इसका प्रमुख कारण है कि सामान्य मानव के हृदय में उद्भूत होने वाले सुख, दु:ख, आशा, निराशा, राग, लोभ आदि का प्रकटीकरण इसमें दिखलाई पड़ता है। ज्ञानेश्वर, नामदेव आदि संतों ने भागवत धर्म की पताका को अपने कंधों पर ही लिया था किंतु तुकाराम ने उसे अपने जीवनकाल ही में अधिक ऊँचे स्थान पर फहरा दिया। उन्होंने अध्यात्मज्ञान को सुलभ बनाया तथा भक्ति का डंका बजाते हुए आबाल वृद्धो के लिये सहज सुलभ साध्य ऐसे भक्ति मार्ग को अधिक उज्ज्वल कर दिया। संत ज्ञानेश्वर द्वारा लिखी गई 'ज्ञानेश्वरी' तथा एकनाथ द्वारा लिखित 'एकनाथी भागवत' के बारकरी संप्रदायवालों के प्रमुख धर्म ग्रंथ हैं। इस वांड्मय की छाप तुकाराम के अंभंगों पर दिखलाई पड़ती हैं। तुकाराम ने अपनी साधक अवस्था में इन पूर्वकालीन संतों के ग्रंथों का गहराई तथा श्रद्धा से अध्ययन किया। इन तीनों संत कवियों के साहित्य में एक ही आध्यात्म सूत्र पिरोया हुआ है तथा तीनों के पारमार्थिक विचारों का अंतरंग भी एकरूप है। ज्ञानदेव की सुमधुर वाणी काव्यालंकार से मंडित है, एकनाथ की भाषा विस्तृत है, पर तुकाराम की वाणी सूत्रबद्ध, अल्पाक्षर, रमणीय तथा मर्मभेदक हैं।

संत तुकाराम जंयती उत्सव

संत तुका राम जयंती न केवल महाराष्ट्र में बल्कि पूरे भारत में साहित्य के प्रसिद्ध व्यक्तित्व के सम्मान के साथ मनाई जाती है। भगवान विट्ठल के भक्त के सम्मान के रूप में तुका राम के जीवन पर विशेष रूप से कई फिल्में और कहानियां बनाई गई हैं। तुकाराम के संत जीवन पर आधारित पहली फ़िल्म विष्णुपंत पागनीस ने 1940 के दशक में बनायी थी। फ़िल्म का नाम था- "संत तुकाराम"। यह फ़िल्म मराठी ही नहीं बल्कि भारतीय फ़िल्म जगत् में मील का पत्थर साबित हुई थी। । महाराष्ट्र में इस फ़िल्म ने सुवर्ण महोत्सव पूरा किया था। इस फ़िल्म का प्रभाव इतना अधिक था की जब लोग फ़िल्म देखने थियेटर में जाते तो अपने जूते बाहर उतारकर जाते थे। फ़िल्म का निर्माण करने वाले विष्णुपंत को ही संत तुकाराम मानकर लोग उनकी पूजा करते थे। जब उन्होंने अपनी आखिरी साँस ली, तब तक अतीत और वर्तमान में अपने पूरे जीवन में, तुका राम ने पूरी तरह से सांसारिक विलासिता को त्यागकर एक साधारण जीवन जिया। संत तुकाराम को आधुनिक मराठी साहित्य में एक किंवदंती माना जाता है। संत तुकाराम पंढरपुर के महान प्रशंसक थे। संत तुकारम की जंयती पर महाराष्ट्र के साथ-साथ पूरे भारत में उनके सम्मान के लिए कई काव्यगोष्ठियां, सभाएं एवं सम्मेलन आयोजित किए जाते हैं। संत तुकाराम की शिक्षाओं का वर्णन किया जाता है। लोगों में उनके संदेशों का प्रवाह किया जाता है।

To read this Article in English Click here

Forthcoming Festivals