भारत एक त्योहारों का देश हैं। जहां पुरातन समय से ही कई व्रत, त्यौहार किए जाते हैं। जो मनुष्यों को सही मार्ग दिखाने के साथ-साथ उनके कष्टों और उनके पापों का भी निवारण करते हैं। मनुष्यों को इन्हीं पापों का प्रायश्चित करने के लिए हर महीने में दो एकादशियां होती है। जिनका व्रत कर मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है। इन्हीं महान एकादशी व्रत में से एक है वरुथिनी एकादशी जिसे बरथानी एकादशी भी कहा जाता है। यह एकादशी वैशाख माह के कृष्ण पक्ष पर पड़ती है। यह एकादशी बहुत खास है। इसे वरूथिनी ग्यारस भी कहते हैं। वरुथिनी एकादशी बहुत ही पुण्य और सौभाग्य प्रदान करने वाली होती है। इस एकादशी के व्रत से समस्त पाप व ताप नष्ट होते हैं। इस दिन भक्त भगवान विष्णु के वामन अवतार की पूजा कर अपने कल्याण की कामना करते हैं। पुराणो में कहा गया है कि वरुथिनी एकादशी उत्तम फल देने वाली एकदाशी होती है। इसका व्रत करने से सब तरह से कल्याण होता है। बड़ी से बड़ी बीमारी से भी व्यक्ति को मुक्ति प्राप्त हो जाती है। भगवान कृष्ण ने वरुथिनी एकादशी की प्रासंगिकता को युधिष्ठिर को बताया था उन्होंने उल्लेख किया कि इस शुभ दिन पर जानवर भी खुद को जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त कर सकते हैं। इस दिन जरूरतमंदों को दान करना भाग्य लाता है। दान किए जा सकने वाले वस्तुओं का एक विस्तृत विवरण भव्य पुराण में सूचीबद्ध किया गया है। क्रमशः घोड़े, हाथी, जमीन, तिल के बीज दान करने से वरुथिनी एकादशी पर दान करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति वरुथिनी एकादशी पर दान करता है, तो इसका फल उसके पूर्वजों और परिवार के सदस्यों को भी मिलता है। हिंदू पौराणिक कथाओं में आमतौर पर यह माना जाता है कि शादी में एक कन्यादान करना सबसे बड़ा दान होता है। लेकिन यदि भक्त पूर्ण धार्मिक उत्साह के साथ वरुथिनी एकादशी पर उपवास करते हैं, तो उन्हें सौ कन्यादान का लाभ प्राप्त होता है।

वरूथिनी एकादशी का महत्व
वरूथिनी एकादशी के व्रत को करने से मनुष्य इस लोक में सुख भोगकर परलोक में स्वर्ग को प्राप्त होता है। शास्त्रों में कहा गया है कि हाथी का दान घोड़े के दान से श्रेष्ठ है। हाथी के दान से भूमि दान, भूमि के दान से तिलों का दान, तिलों के दान से स्वर्ण का दान तथा स्वर्ण के दान से अन्न का दान श्रेष्ठ है। अन्न दान के बराबर कोई दान नहीं है। अन्नदान से देवता, पितर और मनुष्य तीनों तृप्त हो जाते हैं। शास्त्रों में इसको कन्यादान के बराबर माना है। वरुथिनी एकादशी के व्रत से अन्नदान तथा कन्यादान दोनों के बराबर फल मिलता है। जो मनुष्य प्रेम एवं धन सहित कन्या का दान करते हैं, उनके पुण्य को चित्रगुप्त भी लिखने में असमर्थ हैं, उनको कन्यादान का फल मिलता है। ऐसा माना जाता है कि यदि भक्त वरुथिनी एकादशी से संबंधित सभी अनुष्ठानों का पालन करते हैं, तो भक्तों के परिवार को सभी बुराइयों से संरक्षित किया जाता है। मंडहाता और धंधुमार जैसे राजाओं ने वरुथिनी एकादशी पर उपवास करके मोक्ष प्राप्त किया था। भगवान शिव ने एक बार भगवान ब्रह्मा के पांचवें सिर का की खंडन कर दिया था जिसके बदले में अभिशाप से बचन के लिए उन्होंने वरुथिनी एकादशी का व्रत किया और अपने पाप का प्रायश्चित किया।
वरुथिनी एकादशी व्रत कथा
वरुथिनी एकादशी व्रत को लेकर पौराणिक ग्रंथों में कथा प्रचलित है कहा जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने यह कथा युधिष्ठर के आग्रह करने पर सुनाई थी। उन्होने कहा था कि बहुत समय पहले की बात है नर्मदा किनारे एक राज्य था जिस पर मांधाता नामक राजा राज किया करते थे। राजा बहुत ही पुण्यात्मा थे, अपनी दानशीलता के लिये वे दूर-दूर तक प्रसिद्ध थे। वे तपस्वी भी और भगवान विष्णु के उपासक थे। एक बार राजा जंगल में तपस्या के लिये चले गये और एक विशाल वृक्ष के नीचे अपना आसन लगाकर तपस्या आरंभ कर दी वे अभी तपस्या में ही लीन थे कि एक जंगली भालू ने उन पर हमला कर दिया वह उनके पैर को चबाने लगा। लेकिन राजा मान्धाता तपस्या में ही लीन रहे भालू उन्हें घसीट कर ले जाने लगा तो उन्होंने तपस्वी धर्म का पालन करते हुए क्रोध नहीं किया और भगवान विष्णु से ही इस संकट से उबारने की गुहार लगाई। विष्णु भगवान प्रकट हुए और भालू को अपने सुदर्शन चक्र से मार गिराया। लेकिन तब तक भालू राजा के पैर को लगभग पूरा चबा चुका था। राजा बहुत दुखी थे दर्द में थे। भगवान विष्णु ने कहा वत्स विचलित होने की आवश्यकता नहीं है। वैशाख मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी जो कि वरुथिनी एकादशी कहलाती है पर मेरे वराह रूप की पजा करना। व्रत के प्रताप से तुम पुन: संपूर्ण अंगो वाले हष्ट-पुष्ट हो जाओगे। भालू ने जो भी तुम्हारे साथ किया यह तुम्हारे पूर्वजन्म के पाप का फल है। इस एकादशी के व्रत से तुम्हें सभी पापों से भी मुक्ति मिल जायेगी। भगवन की आज्ञा मानकर मांधाता ने वैसा ही किया और व्रत का पारण करते ही उसे जैसे नवजीवन मिला हो। वह फिर से हष्ट पुष्ट हो गया। अब राजा और भी अधिक श्रद्धाभाव से भगवद्भक्ति में लीन रहने लगा।
वरुथिनी एकादशी पर क्या नहीं करना चाहिए
वरुथिनी एकादशी का जितना महत्व है। उतने ही इसके नियम भी है। वरुथिनी एकादशी का व्रत पूरी तरह शुद्ध होकर करना चाहिए। वरुथिनी एकादशी के व्रत में कई चीजें निषेध हैं जैसे कांसे के बर्तन में भोजन करना, मांस खाना, मसूर की दाल खाना या बनाना, चने का साग, कोंदों का साग, शहद खाना, स्त्री के संपर्क में आना, दूसरी बार भोजन करना, किसी और का भोजन करना, मदीरा पीना, पान, गुटखा, तम्बाकू इत्यादि का सेवन करना, जुआ खेलना, बुराई करना, दातुन करना, चुगली करना एवं पापी मनुष्यों के साथ बातचीत करना पूर्णतः वर्जित है। इस व्रत में नमक, तेल अथवा अन्न भी वर्जित है। इस दिन काम, क्रोध, लोभ, मोह का त्याग करना चाहिए। तभी यह व्रत करने का फल प्राप्त होता है।
वरुथिनी एकादशी व्रत विधि
वरुथिनी एकादशी या कहें वरूथिनी ग्यारस को भगवान मधुसूदन की पूजा करनी चाहिये। इस दिन भगवान श्री हरि यानि विष्णु के वराह अवतार की प्रतिमा की पूजा भी की जाती है। एकादशी का व्रत रखने के लिये दशमी के दिन से ही व्रती को नियमों का पालन करना चाहिये। दशमी के दिन केवल एक बार ही अन्न ग्रहण करना चाहिये वह भी सात्विक भोजन के रूप में। व्रत का पालन भी इस दिन करना चाहिये। एकादशी के दिन प्रात:काल स्नानादि के पश्चात व्रत का संकल्प लेकर भगवान विष्णु के वराह अवतार की पूजा करनी चाहिये व साथ ही व्रत कथा भी सुननी या फिर पढ़नी चाहिये। रात्रि में भगवान के नाम का जागरण करना चाहिये और द्वादशी को विद्वान ब्राह्मण को भोजनादि करवा कर दान-दक्षिणा देकर व्रत का पारण करना चाहिये। एकादशी पर रखा गया एक व्रत लगभग हजार वर्षों तक तपस्या करने के समान होता है। वरुथिनी एकादशी के लिए उपवास प्रक्रिया अन्य त्यौहारों से अलग है। इस एकादशी से एक दिन पहले भक्तों को केवल एक बार खाना चाहिए। इस अवसर पर उनका पांचवों अवतार भगवान वामन विशेष रूप से पूजा की जाती है। रात के समय भक्ति गीत गाए जाते हैं और परिवार का हर सदस्य इस उत्सव में भाग लेता है। भक्त भगवान से अपने सभी पापों को क्षमा करने एवं घर में सुख-शांति तथा समृद्धि की मनोकामना करते हैं।