भारत में विवाहित भारतीय महिलाओं से जुड़े कई उत्सव और अनुष्ठान किए जाते हैं। भारतीय स्त्रियों के लिए उनके पति उनके लिए भगवान के स्वरुप होते हैं। भारतीय परंपरा में स्त्रियों को हमेशा पति भक्ति करने का संदेश दिया जाता है। पति के साथ ही संपूर्ण जीवन जाने की शिक्षा दी जाती है। भारतीय महिलाएं अपने पति की लंबी उम्र की कामना के लिए उनके लम्बे जीवन के लिए कई व्रत और त्योहार करती है जिनमें से प्रमुख है वट सावित्री पूजा। इस दिन बरगद (वट) के पेड़ की पूजा की जाती है। जेष्ठ माह की पूर्णिमा को वट सावित्री के पूजन का विधान है। इस दिन महिलाएँ दीर्घ सुखद वैवाहिक जीवन की कामना कर वट वृक्ष की पूजा-अर्चना करती हैं। मान्यता है कि इस दिन व्रत रखने से पति की आयु लंबी होती है। वट एक पेड़ होता है जिसकी पूजा करना इस दिन शुभ माना जाता है। वहीं सावित्री पौराणिक ग्रंथों के अनुसार एक पतिव्रता स्त्री थी जिसने यमराज से लड़कर अपने पति के जीवन की रक्षा की थी उसे पुनर्जिवित किया था। सावित्री के इसी महान तप का अनुसरण कर सावित्री के पति की तरह ही अपने पति की लंबी उम्र की कामना कर सुहागिन यानि शादीशुदा महिलाएं सोलह श्रृंगार कर इस व्रत को करती हैं। यह व्रत भारतीय परंपरा में बहुत प्रसिद्ध है। इस व्रत को लगभग समस्त भारत में अलग-अलग रुप से किया जाता है। वट सावित्री पूजा मुख्य रूप से बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उड़ीसा और महाराष्ट्र में की जाती है वहीं दक्षिण भारतीय विवाहित महिलाएं विशेष रूप से तमिलनाडु और कर्नाटक में इस त्यौहार को कराडाईयन नॉनबू के नाम से मनाती है।

वट सावित्री पूजा

वट सावित्री कथा

यह व्रत सत्यवान की बहादुर पत्नी सावित्री को समर्पित किया गया है, जिन्होंने अपने मृत पति के जीवन पर विजय प्राप्त की थी। यहां तक कि त्यौहार का नाम आदर्श भारतीय विवाहित महिला, सावित्री के बाद व्रत सावित्री पूजा के नाम पर रखा गया है। वाट सावित्री पूजा से जुड़ी कथा के अनुसार सतयुग में सावित्री का जन्म विशिष्ट परिस्थितियों में हुआ था। कहते हैं कि भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान नहीं थी। उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए अठारह वर्षों बहुत बड़ा यज्ञ किया। इसके बाद सावित्रीदेवी ने उन्हें तेजस्वी कन्या के जन्म का वरदान दिया। सावित्रीदेवी की कृपा से जन्म लेने की वजह से कन्या का नाम सावित्री रखा गया। सावित्री के बड़े होने पर राजा की बहुत कोशिश करने पर भी सावित्री के योग्य कोई वर नहीं मिला तो उन्होंने एक दिन सावित्री से कहा कि तुम योग्य हो स्वयं अपने योग्य वर की खोज करो।’ पिता की बात मान कर सावित्री मंत्रियों के साथ यात्रा के लिए निकल गई। कुछ दिनों तक ऋषियों के आश्रमों और तीर्थों में भ्रमण करने के बाद वह राजमहल में लौट आई। इस समय उसके पिता के साथ देवर्षि नारद भी बैठे हुए थे। उसने उन्हें देख कर प्रणाम किया। राजाअश्वपति ने सावित्री से उसकी यात्रा का समाचार पूछा। सावित्री ने कहा, ‘पिता जी! तपोवन में अपने माता-पिता के साथ निवास कर रहे द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान सर्वथा मेरे योग्य हैं। अत: मैंने मन से उन्हीं को अपना पति चुना है।’ नारद जी सावित्री की बात सुनकर चौंक उठे और बोले, ‘राजन! सावित्री ने बहुत बड़ी भूल कर दी है। सत्यवान के पिता शत्रुओं के द्वारा राज्य से वंचित कर दिए गए हैं, वह वन में तपस्वी जीवन व्यतीत कर रहे हैं, अपनी दृष्टि खो चुके हैं। सबसे बड़ी कमी यह है कि सत्यवान की आयु केवल 1 वर्ष शेष रह गई है। किन्तु लाख मना करने पर भी सावित्री नहीं मानी। सावित्री का निश्चय दृढ़ जानकर महाराज अश्वपति ने उसका विवाह सत्यवान से कर दिया। धीरे-धीरे वह समय भी आ पहुंचा जिसमें सत्यवान की मृत्यु निश्चित थी। सावित्री ने उसके चार दिन पूर्व से ही निराहार व्रत रखना शुरू कर दिया। पति एवं सास-ससुर की आज्ञा से सावित्री भी उस दिन पति के साथ जंगल में फल-फूल और लकड़ी लेने के लिए गई। अचानक वृक्ष से लकड़ी काटते समय सत्यवान के सिर में भयानक दर्द होने लगा और वह पेड़ से नीचे उतरकर पत्नी की गोद में लेट गया। उसी समय यमराज आ गए और उन्होंने सत्यवान के प्राण हरण कर लिए। जब वो सत्यवान की आत्मा को अपने साथ ले जाने लगे तो सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल पड़ी। धरती लोक से यमलोक की और सावित्री भी जाने लगी। पति की तरफ इतनी भक्ति देख कर यमराज सावित्री से खुश हुए। और उन्हें तीन वर मांगने को कहा। इस पर सावित्री ने पहले अंधे सास ससुर की आंखे मांगी। यमराज ने कहा एवमस्तु कहा। दूसरे वरदान में उसने अपने पिता के लिए सौ पुत्र मांगे। यमराज ने दूसरा वरदान भी दे दिया। अब तीसरे वरदान की बारी थी। इस बार सावित्री ने अपने लिए सत्यवान से तेजस्वी पुत्र का वरदान मांगा। यमराज एवमस्तु कह कर जाने लगे तो सावित्री ने उन्हें रोकते हुए कहा। पति के बिना पुत्र कैसे संभव होगा। ऐसा कह सावित्री ने यमराज को उलझन में डाल दिया। बाध्य होकर यमराज को सत्यवान को पुनर्जीवित करना पड़ा। इस प्रकार सावित्री ने सतीत्व के बल पर अपने पति को मृत्यु के मुख से छीन लिया। सावित्री पुन: उसी वट वृक्ष के पास लौट आई। जहां सत्यवान मृत पड़ा था। सत्यवान के मृत शरीर में फिर से संचार हुआ। सत्यवान फिर से जीवित हो उठे और सावित्री ने तब वट वृक्ष के फूल को तोड़कर जल ग्रहण कर अपना उपवास तोड़ा। तभी से यह व्रत वट सावित्री व्रत कहलाता है। स्त्रियां इस व्रत को सावित्री की तरह ही यमराज से अपने पतियो की जान की रक्षा करने के लिए करती है।

वट सावित्री पूजा महत्व

वाट सावित्री पूजा अपने पति को पत्नी के प्यार और भक्ति के बारे में है। त्यौहार पूरे चंद्रमा दिवस या हिंदु महीने के हिंदू महीने के चंद्रमा दिवस पर मनाया जाता है। वाट सावित्री उपवास तीन दिन और रात के लिए मनाया जाता है। यह त्रयोदाशी दिवस (चंद्र पखवाड़े का 13 वां दिन) से शुरू होता है और अमावसी या पूर्णिमा पर समाप्त होता है। मान्यता है कि वटवृक्ष के मूल में भगवान ब्रह्मा, मध्य में भगवान विष्णु और अग्रभाग में शिव रहते हैं। इसीलिए वट वृक्ष को देव वृक्ष कहा गया है। देवी सावित्री भी वट वृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं। वटवृक्ष की औषधि के रूप में उपयोगिता से लगभग सभी परिचित हैं। जैसे वटवृक्ष दीर्घकाल तक अक्षय बना रहता है, उसी प्रकार दीर्घायु अक्षय सौभाग्य तथा निरंतर विजय की प्राप्ति के लिए वट वृक्ष की आराधना की जाती है। इसी वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने मृत पति को पुनः जीवित किया था। तब से यह व्रत वट सावित्री के नाम से किया जाता है। प्रत्येक मास के व्रतों में वट सावित्री व्रत एक प्रभावी व्रत है। इसमें वट वृक्ष की पूजा की जाती है। महिलाएं अपने अखंड सौभाग्य एवं कल्याण के लिए यह व्रत करती हैं। सौभाग्यवती महिलाएं श्रद्धा के साथ जेष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावस्या तक 3 दिनों का उपवास रखती हैं और अपने पति की दीर्घ आयु और अच्छे स्वास्थ्य की प्रार्थनाएं करती हैं।

वट सावित्री व्रत की पूजा विधि

हिंदू धर्म के बाद सभी महिलाएं अपने पति के कल्याण के लिए इस वाट सावित्री पूजा का पालन करती हैं। महिलाएं पौराणिक सावित्री की देवी के रूप में पूजा करती हैं और अपने पति के लंबे जीवन के लिए उपवास करती हैं। यह त्यौहार दो दिनों से पहले शुरू हो जाता है। कुछ महिलाएं लगातार 3 दीन तक उपवास करती हैं। इस दिन महिलाएं सुबह जल्दी उठती हैं। स्नान कर नए वस्त्र पहनकर, सोलह श्रृंगार करती हैं। बिंदी, चूड़ी, गहने पहन मांग भरकर सिंदूर लगाती हैं। वट वृक्ष की पूजा करने के बाद ही वे जल ग्रहण करती हैं। जिसके बाद वट वृक्ष का पूजन करने जाती हैं। इस पूजन में स्त्रियाँ चौबीस बरगद फल (आटे या गुड़ के) और चौबीस पूरियाँ अपने आँचल में रखकर बारह पूरी व बारह बरगद वट वृक्ष में चढ़ा देती हैं। वृक्ष में एक लोटा जल चढ़ाकर हल्दी-रोली लगाकर फल-फूल, धूप-दीप से पूजन करती हैं। कच्चे सूत को हाथ में लेकर वे वृक्ष की बारह परिक्रमा करती हैं। हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष में चढ़ाती जाती हैं। और सूत तने पर लपेटती जाती हैं। परिक्रमा पूरी होने के बाद सत्यवान व सावित्री की कथा सुनती हैं। फिर बारह तार (धागा) वाली एक माला को वृक्ष पर चढ़ाती हैं और एक को गले में डालती हैं। छः बार माला को वृक्ष से बदलती हैं, बाद में एक माला चढ़ी रहने देती हैं और एक पहन लेती हैं। जब पूजा समाप्त हो जाती है तब स्त्रियाँ ग्यारह चने व वृक्ष की बौड़ी (वृक्ष की लाल रंग की कली) तोड़कर जल से निगलती हैं। इस तरह व्रत समाप्त करती हैं। इसके पीछे यह कथा है कि सत्यवान जब तक मरणावस्था में थे तब तक सावित्री को अपनी कोई सुध नहीं थी लेकिन जैसे ही यमराज ने सत्यवान को प्राण दिए, उस समय सत्यवान को पानी पिलाकर सावित्री ने स्वयं वट वृक्ष की बौंडी खाकर पानी पिया था। इसके बाद वे अपने पतियों के स्वास्थ्य और कल्याण के प्रार्थना करती हैं घर के बुजुर्ग लोगों का आशीर्वाद ग्रहण करती हैं।
वट सावित्री पूजा
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