भारत में वैसे तो कई त्यौहार, उत्सव एवं मेले आए दिन मनाए जाते हैं। लेकिन सभी मेलों का जो मेला और सभी पर्वों का जो पर्व है वो है कुंभ मेला। कुंभ मुख्यतः चार स्थानों पर लगता है जिनमें से एक उज्जैन है। उज्जैन मध्य भारत में मालवा क्षेत्र का एक प्राचीन शहर है, जो कि क्षिप्रा नदी के पूर्वी तट पर स्थित है। उज्जैन मध्य प्रदेश का एकर अभिन्न हिस्सा है। इसे हिंदुओं के सात पवित्र शहरों (सप्त पुरी) में से एक माना जाता है। उज्जैन और यह प्रयाग (इलाहाबाद), हरिद्वार और नासिक के साथ चार स्थलों में से एक है जो कुंभ मेला की मेजबानी करते है, और लाखों हिंदू तीर्थयात्रियों को आकर्षित करते है। यह वह जगह भी है जहां भगवान कृष्ण ने बलराम और सुदामा के साथ, महर्षि संदीपनी से अपनी शिक्षा प्राप्त की। इसलिए इस क्षेत्र में कुंभ का महत्व और बढ़ जाता है। ज्योतिष परंपराओं में कुंभ पर्व को कुंभ राशि एवं कुंभ योग से जोड़ा गया है। कुंभ योग विष्णुपुराण के अनुसार चार तरह के हैं। जब गुरू कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रविष्ट होता है, तब कुंभ पर्व हरिद्वार में लगता है। जब गुरू मेष राशि चक्र में प्रवेश करता है और सूर्य, चन्द्रमा मकर राशि में माघ अमावास्या के दिन होते हैं, तब कुंभ का आयोजन प्रयाग में किया जाता है। सूर्य एवं गुरू सिंह राशि में प्रकट होने पर कुंभ मेले का आयोजन नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के मूल तट पर लगता है। उज्जैन में सूर्य और गुरु सिंह राशि आने पर यहाँ महाकुंभ मेले का आयोजन किया जाता है, जिसे सिंहस्थ के नाम से देशभर में पुकारा जाता है। सिंहस्थ कुम्भ उज्जैन का महान् स्नान पर्व है। यह पर्व बारह वर्षों के अंतराल से मनाया जाता है। जब बृहस्पति सिंह राशि में होता है, उस समय सिंहस्थ कुम्भ का पर्व मनाया जाता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान का महात्यम चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ हो जाता हैं और वैशाख मास की पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होता है। उज्जैन के प्रसिद्ध कुम्भ महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। पूरे देश में चार स्थानों पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है। प्रयाग, नासिक, हरिद्वार और उज्जैन। उज्जैन में लगने वाले कुम्भ मेलों को सिंहस्थ के नाम से पुकारा जाता है। सिंहस्थ महाकुम्भ के आयोजन की प्राचीन परम्परा है। इसके आयोजन के विषय में अनेक कथाएँ प्रचलित है। समुद्र मंथन में प्राप्त अमृत की बूंदें छलकते समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरु की स्थिति के विशिष्ट योग होते हैं, वहीं कुंभ पर्व का इन राशियों में गृहों के संयोग पर ही आयोजन किया जाता है। अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्रमा के विशेष प्रयत्न रहे थे। इसी कारण इन ग्रहों का विशेष महत्त्व रहता है और इन्हीं गृहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुंभ का पर्व मनाने की परम्परा चली आ रही है।
उज्जैन कुंभ मेला

उज्जैन कुंभ मेले का महत्व

श्रद्धालुओं का यही मत है कि कुंभ के स्नान से मानव के दोष तो मिटते ही हैं, संसार की विपत्तियों का भी नाश होता है। लेकिन श्रद्धालुओं के इस आस्थापूर्ण मत से इतर यदि तार्किक दृष्टि से विचार करें तो भी यही स्पष्ट होता है कि कुम्भ पर्वों का उद्देश्य केवल आस्थापूर्ति और लोकरंजन ही नहीं है, बल्कि इसमे लोककल्याण का भाव भी निहित है। पालक-पोषक होने के कारण और कुछ पौराणिक आस्थाओं के कारण भी, भारत में पुरातन काल से ही नदियों को मां का स्थान प्राप्त रहा है। ऐसे में, बहुत से विद्वानों का ऐसा मानना है कि प्राचीनकाल से निरंतर आयोजित हो रहे इन कुंभ पर्वों का एक प्रमुख उद्देश्य नदी-संरक्षण भी है। उज्जैन में कई धार्मिक मंदिरों जैसे कि बडे गणेशजी का मंदिर, महाकलेश्वर, विक्रम कीर्ति मंदिर और कई अन्य लोगों के साथ समृद्ध है। उज्जैन की अपरिवर्तनीय भावना सिद्धावत नामक एक प्राचीन बरगद के पेड़ की किंवदंती से सबसे अच्छा उदाहरण है। माना जाता है कि यह पेड़ असाधारण आध्यात्मिक शक्तियों से संपूर्ण है जिसके अधीन बैठकर ऋषि-मुनि ध्यान करते हैं एवं मनुष्य गण इसकी पूजा करते हैं। उज्जैन शहर की पवित्रता के पीछे एक दिलचस्प कहानी है। इसकी उत्पत्ति सागर मंथन की पौराणिक कथाओं से हुई है। अमृत की खोज के बाद अमरत्व प्राप्त करने के लिए देवताओं और राक्षसों के बीच पहले अमृत पीने की होड़ मच गई जिसका पीछा करने दौरान अमृत की एक बूंद उज्जैन में भी गिर गई जिससे यह शहर पवित्र हो गया। कुंभ मेला के अवसर पर उज्जैन की दिव्यता और आध्यात्मिक सुगंध अपने चरम चोटी को पूरा करती है जब लाखों भक्त यहां की पवित्र नदी क्षिप्रा में डुबकी लगा कर स्नान करते हैं और पवित्र नदी शिप्रा की पूजा करते हैं। हर नुक्कड़ और कोने से ऋषि और भक्त जन्म-मृत्यु-पुनर्जन्म के दुष्चक्र से मोक्ष और मुक्ति पाने के लिए कुंभ मेला के धार्मिक समारोह में भाग लेते हैं। सिंहस्थ पर्व का सर्वाधिक आकर्षण विभिन्न मतावलंबी साधुओं का आगमन, निवास है। यहां कुंभ के अवसर पर एक से बढ़कर एक साधु-महात्मा आते हैं जो अपने आगमन से इस धरती को और पवित्र करते हैं। कुंभ मेले में लाखों की संख्या में दर्शक एवं यात्रीगण इनका दर्शन करते हैं और इनके स्नान करने पर ही स्वयं स्नान करते हैं। इन साधु-संतों व उनके अखाड़ों की भी अपनी-अपनी विशिष्ट परंपराएँ व रीति-रिवाज हैं। उज्जैन में मेला की स्मृति को 'सिंहस्थ कुंभ मेला' के नाम से जाना जाता है, और इस त्यौहार का मुख्य आकर्षण 'शाही स्नान' (शाही स्नान) है जो हर साल अलग-अलग तारीखों पर होता है। ऐसा माना जाता है कि कुंभ मेले के अवसर पर पवित्र शिप्रा नदी में शाही स्नान करने वाले सभी पिछले जन्मों के अपने पाप धो सकते हैं। भक्त इसे कभी खत्म होने वाले जन्म चक्र से पुनर्जीवित करने का मौका मानते हैं।

कुंभ क्या है?

कलश को कुंभ कहा जाता है। कुंभ का अर्थ होता है घड़ा। इस पर्व का संबंध समुद्र मंथन के दौरान अंत में निकले अमृत कलश से जुड़ा है। देवता-असुर जब अमृत कलश को एक दूसरे से छीन रह थे तब उसकी कुछ बूंदें धरती की तीन नदियों में गिरी थीं। जहां जब ये बूंदें गिरी थी उस स्थान पर तब कुंभ का आयोजन होता है। उन तीन नदियों के नाम है:- गंगा, गोदावरी और क्षिप्रा है। कुंभ के ही एक भाग को अर्धकुंभ भी कहा जाता है। अर्ध का अर्थ है आधा। हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्धकुंभ का आयोजन होता है। पौराणिक ग्रंथों में भी कुंभ एवं अर्ध कुंभ के आयोजन को लेकर ज्योतिषीय विश्लेषण उपलब्ध है। कुंभ पर्व हर 3 साल के अंतराल पर हरिद्वार से शुरू होता है। हरिद्वार के बाद कुंभ पर्व प्रयाग नासिक और उज्जैन में मनाया जाता है। प्रयाग और हरिद्वार में मनाए जानें वाले कुंभ पर्व में एवं प्रयाग और नासिक में मनाए जाने वाले कुंभ पर्व के बीच में 3 सालों का अंतर होता है। यहां माघ मेला संगम पर आयोजित एक वार्षिक समारोह है।

उज्जैन अवलोकन

उज्जैन का अर्थ है विजय की नगरी और यह मध्य प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। इंदौर से इसकी दूरी लगभग 55 किलोमीटर है। यह क्षिप्रा नदी के तट पर बसा शहर। उज्जैन भारत के पवित्र एवं धार्मिक स्थलों में से एक है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शून्य अंश (डिग्री) उज्जैन से शुरू होता है। महाभारत के अरण्य पर्व के अनुसार उज्जैन 7 पवित्र मोक्ष पुरी या सप्त पुरी में से एक है। उज्जैन में 'सिमस्थ कुंभ मेला' दिव्यता और शुद्धता का अनूठा संयोजन है, जिसे अनुभव किया जाता है जब राख-संत ऋषि, पुजारियों, भक्तों की भीड़ हाथियों और ऊंटों की गर्जना के साथ मिलकर मिलती है। जो लोग आध्यात्मिक उत्सव को देखते हैं वे अपने पक्ष में अच्छा भाग्य महसूस करते हैं और अपनी आत्माओं और विचारों को शुद्ध करते हुए सकारात्मक सुगंध महसूस करते हैं। उज्जैन भारत में क्षिप्रा नदी के किनारे बसा मध्य प्रदेश का एक प्रमुख धार्मिक नगर है। यह ऐतिहासिक पृष्ठभूमि लिये हुआ एक प्राचीन शहर है। पौराणिक किंवदंतियों के अलावा, शहर का एक लंबा और प्रतिष्ठित इतिहास है जिसमें प्रसिद्ध राजा चंद्रगुप्त द्वितीय, ब्रह्मागुप्त और भास्करचार्य जैसे महान विद्वान, और कालिदास जैसे साहित्यिक रत्न शामिल हैं। उज्जैन महाराजा विक्रमादित्य के शासन काल में उनके राज्य की राजधानी थी। इसको कालिदास की नगरी भी कहा जाता है। उज्जैन में हर 12 वर्ष के बाद 'सिंहस्थ कुंभ का मेला जुड़ता है। भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक 'महाकालेश्वर इसी नगरी में है। मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध नगर इन्दौर से यह 55 कि.मी. की दूरी पर है। उज्जैन के अन्य प्राचीन प्रचलित नाम हैं- 'अवन्तिका', 'उज्जैयनी', 'कनकश्रन्गा' आदि। उज्जैन मन्दिरों का नगर है। यहाँ अनेक तीर्थ स्थल है। 'भारतीय इतिहास' में प्रसिद्ध मौर्य काल का सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य भी यहाँ आया था और उसका पौत्र अशोक उज्जयिनी का राज्यपाल भी रहा था। मौर्य साम्राज्य के प्रसिद्ध शासक अशोक के बाद उज्जयिनी शकों और सातवाहनों की प्रतिस्पर्धा का मुख्य केंद्र बन गई। सातवीं शताब्दी में कन्नौज के राजा हर्षवर्धन ने उज्जयिनी को अपने साम्राज्य में मिला लिया। उसके समय में उज्जयिनी का सर्वांगीण विकास हुआ।

कुंभ मेले की पौराणिक कथा

कुंभ मेले की पौराणिक कथा के अनुसार एक बार इन्द्र देवता ने महर्षि दुर्वासा को रास्ते में मिलने पर जब प्रणाम किया तो दुर्वासाजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी माला दी, लेकिन इन्द्र ने उस माला का आदर न कर अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर डाल दिया। जिसने माला को सूंड से घसीटकर पैरों से कुचल डाला। इस पर दुर्वासाजी ने क्रोधित होकर इन्द्र की ताकत खत्म करने का श्राप दे दिया। तब इंद्र अपनी ताकत हासिल करने के लिए भगवान ब्रह्मा और भगवान शिव से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें विष्णु भगवान की प्रार्थना करने की सलाह दी, तब भगवान विष्णु ने क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया। जिसके फलस्वरूप क्षीरसागर से पारिजात, ऐरावत हाथी, उश्चैश्रवा घोड़ा रम्भा कल्पबृक्ष शंख, गदा धनुष कौस्तुभमणि, चन्द्र मद कामधेनु और अमृत कलश लिए धन्वन्तरि निकलें। सबसे पहले मंथन में विष उत्पन्न हुआ जो कि भगवान् शिव द्वारा ग्रहण किया गया। जैसे ही मंथन से अमृत दिखाई पड़ा,तो देवता, शैतानों के गलत इरादे समझ गए, देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। समझौते के अनुसार उनका हिस्सा उनको नहीं दिया गया तब राक्षसों और देवताओं में 12 दिनों और 12 रातों तक युद्ध होता रहा। इस तरह लड़ते-लड़ते अमृत पात्र से अमृत चार अलग-अलग स्थानों पर गिर गया, जिन स्थानो पर अमृत गिरा, वो स्थान थे। इलाहाबाद, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। तब से, यह माना गया है कि इन स्थानों पर रहस्यमय शक्तियां हैं, और इसलिए इन स्थानों पर कुंभ मेला लगता है। उस समय चंद्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शांत करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अंत किया गया। देवताओं के 12 दिन, मनुष्यों के 12 साल के बराबर हैं, इसलिए इन पवित्र स्थानों पर प्रत्येक 12 वर्षों के बाद कुंभ मेला लगता है। अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरंतर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुंभ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुंभ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुंभ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है। जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुंभ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुंभ पर्व होता है।

उज्जैन कैसे पहुंचे

हवाईजहाज द्वारा
पवित्र शहर उज्जैन परिवहन के सभी उपलब्ध तरीकों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है और भारत के सभी प्रमुख शहरों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है उज्जैन के शहर के सबसे पास इन्दौर का देवी अहिल्याबाई होलकर हवाई अड्डा है जो यहाँ से 55कि.मी की दूरी पर स्थित है। निजी और सार्वजनिक घरेलू विमान सेवाओं के माध्यम से इन्दौर हवाई अड्डा भारत के अन्य महत्वपूर्ण शहरों से जुड़ा है। पर्यटक उज्जैन तक आने के लिए इन्दौर हवाई अड्डे से टैक्सी भी ले सकते हैं। इन्दौर से उज्जैन तक आने के लिए यात्री बस भी ले सकते हैं।

ट्रेन द्वारा
उज्जैन जंक्शन रेलवे स्टेशन उज्जैन का मुख्य रेलवे स्टेशन है जो भारत के सभी प्रमुख रेलवे स्टेशनों से जुड़ा है। पर्यटक उज्जैन से इंदौर, दिल्ली, पुणे, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता, जम्मू, भोपाल, जयपुर, वाराणसी, गोरखपुर, रतलाम, अहमदाबाद, बड़ौदा, ग्वालियर, हैदराबाद, बैंगलोर और अन्य कई बड़े शहरों के लिए सीधी रेलगाडि़याँ ले सकते हैं।

सड़क मार्ग द्वारा
यह शहर भली प्रकार से राज्य सड़क परिवहन की सार्वजनिक बसों द्वारा जुड़ा है। भोपाल (183 किमी), इन्दौर (55 किमी), अहमदाबाद (400 किमी) तथा ग्वालियर (450 किमी) से उज्जैन के लिए नियमित बसें उपलब्ध हैं। इसके अलावा इन मार्गों पर पर्यटक नियमित रूप से डीलक्स एसी और सुपरफास्ट बसों का लाभ उठा सकते हैं।

टैक्सी सेवा
उज्जैन-इंदौर और उज्जैन-भोपाल और अन्य आसपास के स्थानों के लिये शीघ्र, सुरक्षित और सुविधाजनक अंतर्नगरीय टैक्सी सेवा उपलब्ध है। ये सेवाएँ देश के नामी-गिरामी टैक्सी ऑपरेटर्स द्वारा संचालित की जा रही है

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