यल्लम्मा देवी मेला कर्नाटक के महत्वपूर्ण मेलों में से एक है। यह लोकप्रिय मेला अक्टूबर से फरवरी महीने के विभिन्न अवसरों पर आयोजित होता है लेकिन पूर्ण चंद्रमा दिवस यानि पूर्णिमा पर आयोजित मार्गशीर्ष माह में यह सबसे बड़े मेले के रुप में आयोजित होता है। येल्लम्मा मेला बेलगाम जिले के सौंदट्टी में स्थित येलम्मा मंदिर में येलम्मा देवी या देवी रेणुका के सम्मान में आयोजित किया जाता है। यह मंदिर येलमागुद्दा पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है और ऋषि जमदग्नी की पत्नी येलम्मा देवी यानि रेणुका का मंदिर है। कर्नाटक के अलावा महाराष्ट्र, आंध्र, मध्य प्रदेश और गोवा राज्यों में भी यह मेला बहुत प्रचलित है। इस मेलें को दौरान बड़ी संख्या में लोग मार्गशीर्ष पूर्णिमा पर मेले में शामिल होने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। ऋषि जमदग्नि की धर्मपत्नी और परशुराम जी की माता रेणुका देवी विदर्भ के माहुरगढ़ की पहाड़ी पर स्थित मंदिर में विराजमान हैं। आसपास के कायस्थ, पठारे प्रभु और कोली जाति के लोग उन्हें कुलदेवी मानते हैं। वे लोग चैत्र शुक्ला अष्टमी से पूर्णिमा पर्यन्त आयोजित देवी-उत्सव यात्रा में भाग लेने के लिए पधारते हैं। रेणुका देवी को कर्नाटक में ‘यल्लमा’  के नाम से संबोधित किया जाता है।
श्री यलम्मा देवी मेला

श्री यलम्मा देवी मेला उत्सव

पूर्णिमा दिवस को भारत हनीम भी कहा जाता है। इस दिन को  बहुत शुभ और पवित्र माना जाता है। प्रसिद्ध हिरमानवी येलम्मा यात्रा भारत हनीम के पवित्र दिन पर पूर्णिमा दिवस के मेले में बाहर निकाली जाती है। शक्ति पूजा के रूप में देवी यलम्मा की इस दिन सभी अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों के साथ पूजा की जाती है। देवदासिस या भगवान के दास बनने की प्रवृत्ति आम तौर पर यलम्मा देवी मेले के दौरान प्रचलित होती है। लोकप्रिय श्री यलम्मा देवी मेला अक्टूबर और फरवरी के बीच में आयोजित किया जाता है।

 यलम्मा देवी का इतिहास

पौराणिक कथा के अनुसार भगवान परशुराम भगवान विष्णु के अवतार थे। उनके पिता का नाम जमदग्नि तथा माता का नाम रेणुका था। परशुराम के चार बड़े भाई थे लेकिन गुणों में यह सबसे बढ़े-चढ़े थे। एक दिन  गन्धर्वराज चित्ररथ को अप्सराओं के साथ विहार करता देख हवन हेतु गंगा तट पर जल लेने गई रेणुका आसक्त हो गयी और कुछ देर तक वहीं रुक गयीं। हवन काल व्यतीत हो जाने से क्रुद्ध मुनि जमदग्नि ने अपनी पत्नी के आर्य मर्यादा विरोधी आचरण एवं मानसिक व्यभिचार करने के दण्डस्वरूप सभी पुत्रों को माता रेणुका का वध करने की आज्ञा दी। लेकिन मोहवश किसी ने ऐसा नहीं किया। तब मुनि ने उन्हें श्राप दे दिया और उनकी विचार शक्ति नष्ट हो गई।  जमदग्नि ऋषि ने भगवान परशुराम को आदेश दिया कि ‘जंगल में जाकर रेणुका का वध करो...!’ भगवान परशुराम पितृ आज्ञा टाल नहीं सकते थे। परशुराम जब माता का वध करने के लिए उन्हें जंगल में लेकर गए। उसी समय एक निम्न जाति की येल्लम्मा नामक स्त्री ने माता की दुर्दशा देखकर, परशुराम जी से उन्हें क्षमा करने की याचना की। वह स्त्री माता की रक्षा करने के लिए उनसे लिपट गई। भगवान परशुराम ने इस स्त्री को माता रेणुका से अलग करने का भरपूर प्रयास किया। किन्तु वे इसमें सफल नहीं हुए। फिर भगवान परशुराम ने पिता की आज्ञा का पालन किया। उन्होंने फरसे के तीव्र वार से अपनी माता के मस्तक को धड़ से अलग कर दिया। इसके साथ ही माता से लिपटी महिला का सर भी कट गया।  पितृ आज्ञा का पालन करने के उपरांत। भगवान परशुराम अपने पिता जमदग्नि ऋषि के पास पहुंचे।प्रसन्नचित्त पिता ने परशुराम जी से वर मांगने के लिए कहा।  भगवान परशुराम ने 6 वर मांगे। पहला-माता को जीवनदान, दूसरा-भस्म हुए भाईयों को पुनः मानवीय शरीर में जीवित करना, तीसरा-किसी को भी इस घटना का स्मरण न रहे, चौथा-उन्हें मातृवध के पाप से मुक्त किया जाए, पांचवा-कोई भी उन्हें परास्त न कर सके और छठा-वह अजर अमर हों। पिता से वरदान पाकर। भगवान परशुराम वेग की गति से। अपनी मृत माता को जीवित करने वन में पहुंचे। यहीं भगवान परशुराम से भूल हो गई। माता को जीवित करने की जल्दबाजी और प्रसन्नता में। भगवान परशुराम ने माता रेणुका के शरीर में येल्लमा का मस्तक लगा दिया।  जिस शरीर पर माता रेणुका का मस्तक लगाया गया उसे मरियम्मा और माता रेणुका के जिस शरीर पर येल्लमा का मस्तक लगाया। उसे कालांतर में येल्लम्मा के रूप में पूजा गया। दक्षिण भारत के आंध्रा, तेलंगाना और तामिलनाडू में निम्न जाति वर्ग में माता रेणुका- मरियम्मा और येल्लमा माता के रूप में पूजी जाती हैं। यहां वह एक शक्तिशाली देवी के रूप में पूजनीय है। तब से प्रत्येक वर्ष माता यलम्मा यानि देवी रेणुका को साक्षी मान यलम्मा देवी मेला आयोजित किया जाता है।

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