हमें अपना घर, मकान या दफ्तर कुछ भी बनवाना हो तो हम विशेषज्ञ के पास जाते हैं। बिना किसी विशेषज्ञ, वास्तुकार के कुछ भी बना पाना संभव नहीं है। वैसे ही इस धरती पर और आकाश में असंख्य ऐसी चीजे हैं जो भगवान ने बनवाई है। भगवान के अस्त्र-शस्त्र से लेकर महलों, मंदिरों के निर्माण करने का श्रेय भगवान विश्वकर्मा को जाता है। भगवान विश्वकर्मा इस संसार के पहले वास्तुकार हैं जिन्होंने सृष्टि की रचना की। मानव जातियों का निर्माण किया। हिन्दू धर्म में विश्वकर्मा को निर्माण एवं सृजन का देवता माना जाता है। मान्यता है कि सोने की लंका का निर्माण भी उन्होंने ही किया। पौराणिक काल में विशाल भवनों का निर्माण भगवान विश्वकर्मा करते थे। उन्होंने ही इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, पांडवपुरी, कुबेरपुरी, शिवमंडलपुरी तथा सुदामापुरी आदि का निर्माण किया था। सोने की लंका के अलावा कई ऐसे भवनों का निर्माण उन्होंने किया था, जो उस समय स्थापत्य और सुंदरता में अद्वितीय होने के साथ-साथ वास्तु के हिसाब भी महत्वपूर्ण थे। हिन्दू मान्यतानुसार भगवान पूरे ब्रह्मांड की रचना उसकी रुपरेखा का निर्माण उन्होंने ही किया है। विश्वकर्मा को कला का देवता कहा जाता है। पौराणिक मान्यतानुसार महर्षि अंगिरा के ज्येष्ठ पुत्र बृहस्पति की बहन भुवना ब्रह्मविद्या की जानकार थीं। उनका विवाह आठवें वसु महर्षि प्रभास के साथ संपन्न हुआ था। विश्वकर्मा इन दोनों की ही संतान थे। कहीं-कहीं भगवान विश्वकर्मा को ब्रह्मा जी का पुत्र भी कहा गया है, जिन्हें देवताओं का शिल्पी के रूप में जाना जाता है। इसके अलावा विश्वकर्मा भगवान को सभी शिल्पकारों और रचनाकारों का भी इष्ट देव माना जाता है।प्राचीन शास्त्रों में वैमानकीय विद्या, नवविद्या, यंत्र निर्माण विद्या आदि का भगवान विश्वकर्मा ने उपदेश दिया है। माना जाता है कि प्राचीन समय में स्वर्ग लोक, लंका, द्वारिका और हस्तिनापुर जैसे नगरों के निर्माणकर्ता भी विश्वकर्मा ही थे।
भगवान विश्वकर्मा

विश्वकर्मा द्वारा किए गए आविष्कार

विश्वकर्मा शिल्पी अपने विशिष्ट ज्ञान एवं विज्ञान के कारण ही न मात्र मानवों अपितु देवगणों द्वारा भी पूजित और वंदित है। भगवान विश्वकर्मा के आविष्कार एवं निर्माण कोर्यों के सन्दर्भ में इन्द्रपुरी, यमपुरी, वरुणपुरी, कुबेरपुरी, पाण्डवपुरी, सुदामापुरी, शिवमण्डलपुरी आदि का निर्माण इनके द्वारा किया गया है। पुष्पक विमान का निर्माण तथा सभी देवों के भवन और उनके दैनिक उपयोगी होनेवाले वस्तुएं भी इनके द्वारा ही बनाया गया है। कर्ण का कुण्डल, विष्णु भगवान का सुदर्शन चक्र, शंकर भगवान का त्रिशुल और यमराज का कालदण्ड इत्यादि वस्तुओं का निर्माण भगवान विश्वकर्मा ने ही किया है। भगवान विश्वकर्मा ने ब्रम्हाजी की उत्पत्ति करके उन्हे प्राणीमात्र का सृजन करने का वरदान दिया और उनके द्वारा 84 लाख योनियों को उत्पन्न किया। श्री विष्णु भगवान की उत्पत्ति कर उन्हे जगत में उत्पन्न सभी प्राणियों की रक्षा और भगण-पोषण का कार्य सौप दिया। प्रजा का ठीक सुचारु रूप से पालन और हुकुमत करने के लिये एक अत्यंत शक्तिशाली तिव्रगामी सुदर्शन चक्र प्रदान किया। बाद में संसार के प्रलय के लिये एक अत्यंत दयालु बाबा भोलेनाथ श्री शंकर भगवान की उत्पत्ति की। उन्हे डमरु, कमण्डल, त्रिशुल आदि प्रदान कर उनके ललाट पर प्रलयकारी तिसरा नेत्र भी प्रदान कर उन्हे प्रलय की शक्ति देकर शक्तिशाली बनाया। यथानुसार इनके साथ इनकी देवियां खजाने की अधिपति माँ लक्ष्मी, राग-रागिनी वाली वीणावादिनी माँ सरस्वती और माँ गौरी को देकर देंवों को सुशोभित किया।

भगवान विश्वकर्मा का महत्व

विष्णुपुराण के पहले अंश में विश्वकर्मा को देवताओं का देव-बढ़ई कहा गया है तथा शिल्पावतार के रूप में सम्मान योग्य बताया गया है। यही मान्यता अनेक पुराणों में आई है, जबकि शिल्प के ग्रंथों में वह सृष्टिकर्ता भी कहे गए हैं । धर्मशास्त्रों और ग्रथों में विश्वकर्मा के पांच स्वरुपों और अवतारों का वर्णन है। विराट विश्वकर्मा, धर्मवंशी विश्वकर्मा, अंगिरावंशी विश्वकर्मा, सुधन्वा विश्वकर्म और भृंगुवंशी विश्वकर्मा। भगवान विश्वकर्मा के सबसे बडे पुत्र मनु ऋषि थे। इनका विवाह अंगिरा ऋषि की कन्या कंचना के साथ हुआ था। आरंभिक काल से ही विश्वकर्मा के प्रति सम्मान का भाव रहा है। उनको गृहस्थ जैसी संस्था के लिए आवश्यक सुविधाओं का निर्माता और प्रवर्तक माना गया है। वह सृष्टि के प्रथम सूत्रधार कहे गए हैं। स्कंदपुराण में उन्हें देवायतनों का सृष्टा कहा गया है। कहा जाता है कि वह शिल्प के इतने ज्ञाता थे कि जल पर चल सकने योग्य खड़ाऊ तैयार करने में समर्थ थे। इन्होंने मानव सृष्टि का निर्माण किया है। इनके कुल में अग्निगर्भ, सर्वतोमुख, ब्रम्ह आदि ऋषि उत्पन्न हुये है। विश्वकर्मा वैदिक देवता के रूप में मान्य हैं, किंतु उनका पौराणिक स्वरूप अलग प्रतीत होता है। विश्व के सबसे पहले तकनीकी ग्रंथ विश्वकर्मीय ग्रंथ ही माने गए हैं। विश्वकर्मीयम ग्रंथ इनमें बहुत प्राचीन माना गया है, जिसमें न केवल वास्तुविद्या बल्कि रथादि वाहन और रत्नों पर विमर्श है। ‘विश्वकर्माप्रकाश’ विश्वकर्मा के मतों का जीवंत ग्रंथ है। विश्वकर्माप्रकाश को वास्तुतंत्र भी कहा जाता है। इसमें मानव और देववास्तु विद्या को गणित के कई सूत्रों के साथ बताया गया है, ये सब प्रामाणिक और प्रासंगिक हैं।

भगवान विश्वकर्मा की उत्पति

कहा जाता है कि प्राचीन काल में जितनी राजधानियां थी, प्राय: सभी विश्वकर्मा की ही बनाई कही जाती हैं। यहां तक कि सतयुग का 'स्वर्ग लोक', त्रेता युग की 'लंका', द्वापर की 'द्वारिका' और कलयुग का 'हस्तिनापुर' आदि विश्वकर्मा द्वारा ही रचित हैं। 'सुदामापुरी' की तत्क्षण रचना के बारे में भी यह कहा जाता है कि उसके निर्माता विश्वकर्मा ही थे। इससे यह आशय लगाया जाता है कि धन-धान्य और सुख-समृद्धि की अभिलाषा रखने वाले पुरुषों को बाबा विश्वकर्मा की पूजा करना आवश्यक और मंगलदायी है। एक कथा के अनुसार सृष्टि के प्रारंभ में सर्वप्रथम 'नारायण' अर्थात साक्षात विष्णु भगवान सागर में शेषशय्या पर प्रकट हुए। उनके नाभि-कमल से चर्तुमुख ब्रह्मा दृष्टिगोचर हो रहे थे। ब्रह्मा के पुत्र 'धर्म' तथा धर्म के पुत्र 'वास्तुदेव' हुए। कहा जाता है कि धर्म की 'वस्तु' नामक स्त्री से उत्पन्न 'वास्तु' सातवें पुत्र थे, जो शिल्पशास्त्र के आदि प्रवर्तक थे। उन्हीं वास्तुदेव की 'अंगिरसी' नामक पत्नी से विश्वकर्मा उत्पन्न हुए। पिता की भांति विश्वकर्मा भी वास्तुकला के अद्वितीय आचार्य बने। भगवान विश्वकर्मा के अनेक रूप बताए जाते हैं- दो बाहु वाले, चार बाहु एवं दस बाहु वाले तथा एक मुख, चार मुख एवं पंचमुख वाले। उनके मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी एवं दैवज्ञ नामक पांच पुत्र हैं। यह भी मान्यता है कि ये पांचों वास्तु शिल्प की अलग-अलग विधाओं में पारंगत थे और उन्होंने कई वस्तुओं का आविष्कार किया। इस प्रसंग में मनु को लोहे से, तो मय को लकड़ी, त्वष्टा को कांसे एवं तांबे, शिल्पी ईंट और दैवज्ञ को सोने-चांदी से जोड़ा जाता है।

भगवान विश्वकर्मा के वंशज

स्कन्दपुराण के अनुसार भगवान विश्वकर्मा के वशंजों की चर्चा की गई है। ब्रम्ह स्वरुप विराट श्री।विश्वकर्मा पंचमुख है। उनके पाँच मुख है जो पुर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऋषियों को मत्रों व्दारा उत्पन्न किये है। उनके नाम है – मनु, मय, त्वष्टा, शिल्पी और देवज्ञ।
ऋषि मनु विष्वकर्मा - ये "सानग गोत्र" के कहे जाते है। ये लोहे के कर्म के उध्दगाता है। इनके वशंज लोहकार के रूप मे जानें जाते है।
सनातन ऋषि मय - ये सनातन गोत्र कें कहें जाते है। ये बढई के कर्म के उद्धगाता है। इनके वंशंज काष्टकार के रूप में जाने जाते है।
अहभून ऋषि त्वष्ठा - इनका दूसरा नाम त्वष्ठा है जिनका गोत्र अहंभन है। इनके वंशज ताम्रक के रूप में जाने जाते है।
प्रयत्न ऋषि शिल्पी - इनका दूसरा नाम शिल्पी है जिनका गोत्र प्रयत्न है। इनके वशंज शिल्पकला के अधिष्ठाता है और इनके वंशज संगतराश भी कहलाते है इन्हें मुर्तिकार भी कहते हैं।
देवज्ञ ऋषि - इनका गोत्र है सुर्पण। इनके वशंज स्वर्णकार के रूप में जाने जाते हैं। ये रजत, स्वर्ण धातु के शिल्पकर्म करते है,।
परमेश्वर विश्वकर्मा के ये पाँच पुत्रं, मनु, मय, त्वष्ठा, शिल्पी और देवज्ञ शस्त्रादिक निर्माण करके संसार करते है। लोकहित के लिये अनेकानेक पदार्थ को उत्पन्न करते वाले तथा घर, मंदिर एवं भवन, मुर्तिया आदि को बनाने वाले तथा अलंकारों की रचना करने वाले है। इनकी सारी रचनाये लोकहितकारणी हैं। इसलिए ये पाँचो एवं वन्दनीय ब्राम्हण है और यज्ञ कर्म करने वाले है। इनके बिना कोई भी यज्ञ नहीं हो सकता। माना जाता है कि भगवान विश्वकर्मा सभी चार युगों के माध्यम से पूरे ब्रह्मांड और दिव्य महलों को डिजाइन करने के लिए माने जातो है। विभिन्न युगों में उनके कुछ वास्तुशिल्प चमत्कार निम्नानुसार हैं:
शनि युग में स्वर्ग या स्वर्ग
त्रेता युग में सोने की लंका
द्वापर युग में द्वारका शहर
कली युग में हस्तीनापुर और इंद्रप्रस्थ

भगवान विश्वकर्मा का स्वरुप

भगवान विश्वकर्मा का स्वरुप चित्रों में इस प्रकार वर्णित है कि भगवान विश्वकर्मा सिंहासन पर चार भुजाओं सहित बैठे हुए हैं। उनके एक हाथ में विश्वकर्मा पुराण और एक हाथ में पुस्तक है। तीसरे हाथ में औजार हैं जो भवन निर्माण का प्रतिक हैं। नीचे झुके हाथ में कमंडल है जो सृष्टि की रचना की प्रतिक है। पीले वस्त्र धारण किए आभूषण पहने विश्वकर्मा सृजनकर्ता के रुप में चित्रित किए जाते हैं।

विश्वकर्मा को समर्पित त्योहार

भगवान विश्वकर्मा को समर्पित कई त्योहार भारतवर्ष में मनाए जाते हैं। जिनमें विश्वकर्मा पूजा दो बार विशेष रुप से की जाती है। एख तो सिंतबर माह में और दूसरी गोवर्धन पूजा दीपावली के अगले दिन की जाती है। हिंदू विश्वव्यापी वास्तुकला और इंजीनियरिंग के देवता के रूप में व्यापक रूप से सम्मान करते हैं। त्यौहार सभी तकनीकी श्रमिकों और कारीगरों के लिए नए उत्पादों को डिजाइन करने के लिए अपनी दक्षता और रचनात्मकता बढ़ाने के लिए संकल्प समय के रूप में कार्य करता है। विश्वकर्मा पूजा के दिन सभी मशीनों, यंत्रों की पूजा की जाती है। वाहनों को भी विश्वकर्मा का रुप माना जाता है इसलिए इस दिन पूजा करने के बाद ही वाहनों का प्रयोग किया जाता है। विभिन्न राज्यों में, खासकर औद्योगिक क्षेत्रों, फैक्ट्रियों, लोहे की दुकान, वाहन शोरूम, सर्विस सेंटर आदि में पूजा होती है। इस मौके पर मशीनों, औजारों की सफाई एवं रंगरोगन किया जाता है। इस दिन ज्यादातर कल-कारखाने बंद रहते हैं और लोग हर्षोल्लास के साथ भगवान विश्वकर्मा की पूजा करते है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, दिल्ली आदि राज्यों में भगवान विश्वकर्मा की भव्य मूर्ति स्थापित की जाती है और उनकी आराधना की जाती है।

भगवान विश्वकर्मा की पूजन विधि

भगवान विश्वकर्मा की पूजा और यज्ञ विशेष विधि-विधान से होती है। इसकी विधि यह है कि यज्ञकर्ता पत्नी सहित पूजा स्थान में बैठे। इसके बाद विष्णु भगवान का ध्यान करे। तत्पश्चात् हाथ में पुष्प, अक्षत लेकर मंत्र पढ़े और चारों ओर अक्षत छिड़के। अपने हाथ में रक्षासूत्र बांधे एवं पत्नी को भी बांधे। पुष्प जलपात्र में छोड़े। इसके बाद हृदय में भगवान विश्वकर्मा का ध्यान करें। दीप जलायें, जल के साथ पुष्प एवं सुपारी लेकर संकल्प करें। शुद्ध भूमि पर अष्टदल कमल बनाए। उस पर जल डालें। इसके बाद पंचपल्लव, सप्त मृन्तिका, सुपारी, दक्षिणा कलश में डालकर कपड़े से कलश की तरफ अक्षत चढ़ाएं। चावल से भरा पात्र समर्पित कर विश्वकर्मा बाबा की मूर्ति स्थापित करें और वरुण देव का आह्वान करें। पुष्प चढ़ाकर कहना चाहिए- ‘हे विश्वकर्माजी, इस मूर्ति में विराजिए और मेरी पूजा स्वीकार कीजिए’। इस प्रकार पूजन के बाद विविध प्रकार के औजारों और यंत्रों आदि की पूजा कर हवन यज्ञ करें।

भगवान विश्वकर्मा की पूजा का मंत्र

ॐ आधार शक्तपे नम: और ॐ कूमयि नम:, ॐ अनन्तम नम:, ॐ पृथिव्यै नम:

श्री विश्वकर्मा भगवान के 108 नाम

1. ॐ विश्वकर्मणे नमः
2. ॐ विश्वात्मने नमः
3. ॐ विश्वस्माय नमः
4. ॐ विश्वधाराय नमः
5. ॐ विश्वधर्माय नमः
6. ॐ विरजे नमः
7. ॐ विश्वेक्ष्वराय नमः
8. ॐ विष्णवे नमः
9. ॐ विश्वधराय नमः
10. ॐ विश्वकराय नमः
11. ॐ वास्तोष्पतये नमः
12. ॐ विश्वभंराय नमः
13. ॐ वर्मिणे नमः
14. ॐ वरदाय नमः
15. ॐ विश्वेशाधिपतये नमः
16. ॐ वितलाय नमः
17. ॐ विशभुंजाय नमः
18. ॐ विश्वव्यापिने नमः
19. ॐ देवाय नमः
20. ॐ धार्मिणे नमः
21. ॐ धीराय नमः
22. ॐ धराय नमः
23. ॐ परात्मने नमः
24. ॐ पुरुषाय नमः
25. ॐ धर्मात्मने नमः
26. ॐ श्वेतांगाय नमः
27. ॐ श्वेतवस्त्राय नमः
28. ॐ हंसवाहनाय नमः
29. ॐ त्रिगुणात्मने नमः
30. ॐ सत्यात्मने नमः
31. ॐ गुणवल्लभाय नमः
32. ॐ भूकल्पाय नमः
33. ॐ भूलेंकाय नमः
34. ॐ भुवलेकाय नमः
35. ॐ चतुर्भुजय नमः
36. ॐ विश्वरुपाय नमः
37. ॐ विश्वव्यापक नमः
38. ॐ अनन्ताय नमः
39. ॐ अन्ताय नमः
40. ॐ आह्माने नमः
41. ॐ अतलाय नमः
42. ॐ आघ्रात्मने नमः
43. ॐ अनन्तमुखाय नमः
44. ॐ अनन्तभूजाय नमः
45. ॐ अनन्तयक्षुय नमः
46. ॐ अनन्तकल्पाय नमः
47. ॐ अनन्तशक्तिभूते नमः
48. ॐ अतिसूक्ष्माय नमः
49. ॐ त्रिनेत्राय नमः
50. ॐ कंबीघराय नमः
51. ॐ ज्ञानमुद्राय नमः
52. ॐ सूत्रात्मने नमः
53. ॐ सूत्रधराय नमः
54. ॐ महलोकाय नमः
55. ॐ जनलोकाय नमः
56. ॐ तषोलोकाय नमः
57. ॐ सत्यकोकाय नमः
58. ॐ सुतलाय नमः
59. ॐ सलातलाय नमः
60. ॐ महातलाय नमः
61. ॐ रसातलाय नमः
62. ॐ पातालाय नमः
63. ॐ मनुषपिणे नमः
64. ॐ त्वष्टे नमः
65. ॐ देवज्ञाय नमः
66. ॐ पूर्णप्रभाय नमः
67. ॐ ह्रदयवासिने नमः
68. ॐ दुष्टदमनाथ नमः
69. ॐ देवधराय नमः
70. ॐ स्थिर कराय नमः
71. ॐ वासपात्रे नमः
72. ॐ पूर्णानंदाय नमः
73. ॐ सानन्दाय नमः
74. ॐ सर्वेश्वरांय नमः
75. ॐ परमेश्वराय नमः
76. ॐ तेजात्मने नमः
77. ॐ परमात्मने नमः
78. ॐ कृतिपतये नमः
79. ॐ बृहद् स्मणय नमः
80. ॐ ब्रह्मांडाय नमः
81. ॐ भुवनपतये नमः
82. ॐ त्रिभुवनाथ नमः
83. ॐ सतातनाथ नमः
84. ॐ सर्वादये नमः
85. ॐ कर्षापाय नमः
86. ॐ हर्षाय नमः
87. ॐ सुखकत्रे नमः
88. ॐ दुखहर्त्रे नमः
89. ॐ निर्विकल्पाय नमः
90. ॐ निर्विधाय नमः
91. ॐ निस्माय नमः
92. ॐ निराधाराय नमः
93. ॐ निकाकाराय नमः
94. ॐ महदुर्लभाय नमः
95. ॐ निमोहाय नमः
96. ॐ शांतिमुर्तय नमः
97. ॐ शांतिदात्रे नमः
98. ॐ मोक्षदात्रे नमः
99. ॐ स्थवीराय नमः
100. ॐ सूक्ष्माय नमः
101. ॐ निर्मोहय नमः
102. ॐ धराधराय नमः
103. ॐ स्थूतिस्माय नमः
104. ॐ विश्वरक्षकाय नमः
105. ॐ दुर्लभाय नमः
106. ॐ स्वर्गलोकाय नमः
107. ॐ पंचवकत्राय नमः
108. ॐ विश्वलल्लभाय नमः।

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